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________________ महर्षि आनन्द और उनका तत्त्वचिन्तन INIOne सद्गुण गुप्त रूप से विद्यमान होते हैं, उन्हें प्रत्यक्ष करना, चरित्र-निर्माण करना तथा उसे सन्मार्ग बताना। शरीर तथा आत्मा में अधिक-से-अधिक जितने सौन्दर्य और सम्पूर्णता का विकास हो सकता है, उसे सम्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य जीवन की परिस्थितियों का सामना करने की योग्यता प्राप्त करता है। आज स्कूलों और कालेजों में शिक्षा के नाम पर जो शिक्षा दी जाती है वह केवल पुस्तकीय ज्ञान होता है और उसका उद्देश्य सांसारिक सुखों के साधन जुटाना मात्र रहता है। इसलिए ऋषिजी का विचार है कि शिक्षा ऐसी हो जो ज्ञान-चक्षुओं को उघाड़े और आत्मा को जन्म-मरण के चक्कर से छुड़ाये । . इसलिए ऋषिजी ऐसे स्कूल, कालेज और पाठशालाएँ स्थापित कराते रहे हैं जिनमें अध्यात्मवादी शिक्षा देने की भी परिपूर्ण व्यवस्था हो। धार्मिक ज्ञान की वृद्धि के लिए दान करना उनकी दृष्टि में सच्चा दान है। आचार्यप्रवर सदैव ज्ञान के साथ चारित्र का सम्बन्ध जोड़ते आये हैं। उनका कहना है कि विश्वविद्यालय की उच्चतम डिग्री प्राप्त करने पर भी यदि मानव सच्चा मानव नहीं बन सका, उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं हो सका, उसके अन्दर छिपी हुई महान् शक्तियाँ जागृत नहीं हो सकी तथा उसका चरित्र सर्वगुणसम्पन्न नहीं बन सका तो वह अनेक विद्याओं का ज्ञाता और अनेक भाषाओं का जानकार विद्वान भी ज्ञानी नहीं कहला सकता।' परिवारपोषण की नीति आचार्य जी गृहस्थों की समस्याओं पर भी दृष्टि घुमाते हैं और उनके साथ सहानुभूति पूर्वक विचार करते हए कहते हैं कि व्यक्ति अपने परिवार का पालन-पोषण इस प्रकार करे, जैसे एक धाय दूसरे के बालक को पालती है । अर्थात् जिस प्रकार धाय की बालक में आसक्ति और ममता नहीं होती, उसी प्रकार मुमुक्ष प्राणी अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करते हए भी उनसे प्रगाढ़ मोह न रखे। का सम्यग्दृष्टि प्राणी ही शिव-साधन कर सकता है, अपनी आत्मा को कर्म-मुक्त कर शिवपुर ले जा सकता है। आधुनिक परिवारों में व्याप्त अविनीतता, असंस्कारिता, चरित्रहीनता, घृणा, तिरस्कार, अशान्ति आदि के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए ऋषिजी कहते हैं कि यह सब हमारी दूषित शिक्षाप्रणाली का फल है। माता-पिता की सेवा, भक्ति तथा सम्मान से बढ़कर उनकी दृष्टि में अन्य कोई भी धर्म या शुभकृत्य नहीं है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हर परिवार अपने घर का वातावरण सुन्दर बनाये और बालकों पर प्रेरणाप्रद संस्कार डाले।। आज का परिवार अनेक दुर्व्यसनों में भी फँसता हुआ दिखाई दे रहा है। जैन सम्प्रदाय यद्यपि अन्य जातियों और सम्प्रदायों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत, समृद्ध और शिक्षित है, फिर भी आज उसमें मांस, शराब, जुए आदि जैसे दुर्व्यसन घर करते हुए चले जाते हैं। दहेजप्रथा जैसी कुछ कुरीतियाँ भी समाज में सुरसा के समान बढ़ती चली जाती हैं । इन सबसे बचने का आम उपाय आचार्य की दृष्टि में सन्त और सुशिक्षामय संस्कार और वातावरण की प्रस्तुति है। संगठन महर्षि आनन्द संगठन के बड़े हिमायती हैं। वे सदैव संगठित रहने का उपदेश देते रहते हैं। राजस्थान का भ्रमण उन्होंने श्रमण संगठन में प्रगति करने के उद्देश्य से ही किया था। यहाँ अभी १९७३ जया १ आनन्द प्रवचन, भाग १ पृ० ८१, १७५-१८०; भाग ३, पृ० ५८, ६२, १४७-८ २ वही, भाग १ पृ० १५६, २३०, ३३१-३, ३७१-६; भाग ३, पृ० ६२, ३४२-३ - RALAAJL R AJASun.. . ..... .. . . .. .... पावर अभिसापावर भर श्रीआनन्द श्रीआनन्दा अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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