SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य प्रवर अभिआचार्यप्रवर आभा श्रीआनन्दग्रन्थश्रीआनन्द अन्५० ५२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जया कषायजनित वृत्तियाँ धीरे-धीरे शमित होती जायँ, वही साधु है। परिग्रह का विसर्जन कराना, तिरना और तारना का ही कार्य है। मोहकर्म ही साधना में कमी लाता है और मोह-ममता उतारना और उतारने की प्रेरणा या उपदेश देना कैसे साधूता नहीं कहला सकता। श्रमण का कार्य है कि स्वयं श्रम करे, समभाव रखे और समभाव की वृद्धि करे और जन-जन में का विस्तार करे, परिग्रही श्रावक या गृहस्थ यदि उपदेश से विषमवृत्ति को नहीं छोड़ते तो प्रेरणा से विषमवृत्ति का नाश करना समयोग का प्रसार करना ही है। उपदेश और प्रेरणा शब्दों का फेर है। उपदेश का क्रियात्मक अगला कदम प्रेरणा ही तो है। साधु अपने चेले मुंडने के लिए सब कुछ क्रियाएँ कर लेते हैं। लेकिन साधुवृत्ति-समवृत्ति-निष्परिग्रह-वृत्ति और निगण्ठ धर्म फैलाने में प्रेरणा देना कैसे साधुचर्या से विपरीत कार्य होता है। आनन्दाचार्य गृहस्थों को त्यागी और त्यागधर्मी बनाने के लिए निरन्तर उपदेश देते हैं। प्रेरणा करते हैं और कार्यरत भी करते हैं। धर्म के कार्य और साधना के कार्य भिन्न नहीं होते। आज स्थानकवासी समाज का बहुल क्षेत्र आनन्दाचार्य के प्रयास से शिक्षा में आगे बढ़ा है और बढ़ रहा है। आनन्दाचार्य का सदा यही प्रयास रहा है कि भावी पीढ़ी को सुसंस्कृत बनाने के लिए उपयुक्त शिक्षा अवश्य दिलाई जाय और उसके लिए शिक्षालय, वसतिगृह, छात्रालय और शिल्पालय बनाने और विस्तार कराने में धनत्याग-दान का उपदेश और दान की प्रेरणा आवश्यकीय है। आनन्दाचार्य का हृदय शिक्षा-प्रचार के कार्य से भरा हआ है। मस्तिष्क शिक्षाप्रसार में लगा हुआ है और शरीर शिक्षाप्रसार कार्य में प्रेरणा दे रहा है। मेरी दृष्टि में आनन्दाचार्य का जन्म स्थानकवासी समाज में शिक्षाप्रसार के लिए ही हुआ है; ऐसा भासित हो रहा है। शिक्षाप्रसार का मूर्तिमंत आचार्यप्रवर शिक्षा का अवतार बन गया है। प्राकृत-भाषा-शिक्षा, संस्कृत-भाषा-शिक्षा, हिन्दी-भाषा-शिक्षा और आचार-शिक्षा ये इनके जीवन के ज्वलंत कार्य हैं। साधुओं में शिक्षा, साध्वियों में शिक्षा, बच्चों में शिक्षा, बच्चियों में शिक्षा, नवयुवा, प्रौढ़ और वृद्धों तथा नवयुवतियों, प्रौढ़ महिलाओं और वृद्ध महिलाओं में शिक्षा का अत्यधिक प्रसार करने वाला महान् साधक आनन्दाचार्य है। जिसकी रग-रग शिक्षा-प्रचार-प्रसार के खुन से भरी हई है। शिक्षा के साथ परीक्षा का कार्य भी अपने पाथर्डी केन्द्र से दिनोंदिन वृद्धि को पा रहा है। छोटे स्कूल, बड़े स्कूल, अपने स्कूल, पराये स्कूल, जैनी स्कूल, अजैनी स्कूल, जनता के स्कूल और राजकीय स्कूल सभी में सच्ची शिक्षा और संस्कृत, प्राकृत भाषा की शिक्षा का प्रचार-प्रसार का इस युग का महान् देवता यदि कोई है तो आनन्दाचार्य है। इस आनन्द की मूर्ति आनन्दाचार्य को सोते, उठते, बैठते, चलते, खाते, पीते, चर्चा करते और उपदेश देते सभी जगह शिक्षाप्रसार की वार्ता ही भाती है और इसी साधना में उनकी हर प्रवृत्ति सुवासित है। ऐसे शिक्षा-प्रसारक आनन्दाचार्य सिद्धि प्राप्त करने में दीर्घायु हों, यही श्रद्धाञ्जलि अर्पित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy