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________________ आचार्य श्री आनन्द ऋषि देते हैं कि 'सम्यग्ज्ञान आदि रत्नों के अक्षय कोष को प्राप्त करने के लिए संघ को समाधि-सम्पन्न श्रुतशील, प्रखर प्रतिभाशाली, मोक्षमार्ग के महापथिक आचार्य की शरण में रहकर उसकी सेवा करनी चाहिए । १४ आचार्य की तेजस्विता की ओर संकेत करते हुए उसे तपते हुए सूर्य से उपमित किया गया है । १५ सम्भवत: इसीलिए 'जैनधर्मदिवाकर' की उपाधि प्रचलित हुई है । परन्तु तेजस्वी होते हुए भी आचार्य के स्वभाव में शीतलता होनी चाहिए, उसके इसी स्वभाव को व्यक्त करने के लिए उसे 'शशि' सम, कहा गया है ।१६ आचार्यत्व के महतो महीयान् पद की सुरक्षा के लिए उस व्यक्ति का चुनाव करने को कहा गया है जिसमें छत्तीस विशिष्टताएँ पायी जायँ -- पंचिदिय संवरणो नवविह बह्मचेरगुत्तिधरो, चविह कसायमुक्को, इअ अट्ठारस गुर्णेह संजुत्तो । पंचमहन्वयजुत्तो पंच विहायार - पालण - समत्थो । पंच समिओ तिगुत्तो, इअ छत्तीस गुणेहिं गुरुमज्झ । आचार्य वह है जो पांचों कर्मेन्दियों का विजेता हो, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का महासाधक हो, चारों कषाय जिसके समक्ष नतमस्तक हों, जो पाँच महाव्रतों का निष्ठावान् आराधक हो, जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार रूप पाँच आचारों के पालन में समर्थ हों । पाँच समितियों और तीनों गुप्तियों का धारक हो । ये छत्तीस विशेषताएँ आचार्यत्व के गौरव को सुरक्षित करने वाली हैं। आचार्यत्व की इसी महती महिमा, उसकी गगनोपम गरिमा को देखकर 'सो धनो स अ पुणो अ, स बन्धू मुक्खदायणों' कहकर उसे गौरवान्वित किया गया है । ४६ उपर्युक्त विशेषताओं से युक्त गौरवमय आचार्यत्व के मैंने दर्शन किये हैं पहले तो जैनधर्मदिवाकर श्रद्धेयचरण आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज में और अब उसके दर्शन कर रहा हूँ तेजस्वी महापुरुष श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज में । यह द्विमुखी दर्शन मुझे आत्म-आनन्द प्रदान कर रहा है । इसी आनन्द में आत्मविभोर होकर मेरा हृदय कह रहा है- नमो आयरियाणं नमः आचार्येभ्यः । १४ महागरा आयरिया महेसी, समाहिजोगे सुअसीलबुद्धिए । संपावि कामे अणुत्तराइ, आराहए तोसइ धम्मकामी । दश० ६।१।१६ १५ जहा निसंते तवणच्चिमाली, पभासइ केवलं भारहं तु । - दश० ६।१।१६ १६ जहा ससी कोमुइ-जोग- जुत्तो, नक्खत्ततारागण परिवुडप्पा । खे सोहs मिले अभमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे । दश० | १|१५ Jain Education International आचार्य प्रवरासत अभिनन्दन श्री आनन्द अन्थ For Private & Personal Use Only श्री Croc so अभिने नन्दग्रन्थ 32 www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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