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________________ आचार्य श्री आनन्द ऋषि ४५ करना पड़ता है । उसके इसी दायित्व को देखते हुए उसके लिये 'आचार्य' शब्द का प्रयोग किया गया है । क्योंकि आचार्य शब्द का अर्थ है जो जिनोपदिष्ट आध्यात्मिक मर्यादाओं के अनुकूल चलता है । 1 जिसने आचार के अनुरूप अपने को ढाला है । २ और आध्यात्मिक तालों की कुंजियाँ पाने के लिये साधक जिसका अनुकरण करते हैं | 3 मननशील मुनीश्वरों ने आचार्य के विशेष दायित्वों का संकेत करते हुए कहा हैसुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, गच्छस्स मेढिभूओ य । गणतत्ति-विप्पगुक्को, अत्थं वाए ओ आयरियो | आचार्य सूत्र एवं सूत्रार्थ का वेत्ता हो, इस विशेषण में आचार्य की मति-सम्पदा सम्बन्धी उत्कृष्टता की अनिवार्यता घोषित की गई है । दशाश्रुत-स्कन्ध सूत्र में ( दशा - ४) वचन - सम्पदा, वाचना- सम्पदा, मति सम्पदा और प्रयोग-मति सम्पदा के रूप में आचार्य के बौद्धिक पक्ष का प्रत्येक पहलू प्रदर्शित किया, गया है । उसकी ये समस्त सम्पदाएँ 'सुत्तत्थविऊ' होने पर ही विकसित हो सकती हैं । यदि उसकी कुशाग्र ' बुद्धि ने समस्त आगमों को ग्रहण कर लिया है और उसके मर्म को समझ लिया है, उसी दशा में वह प्रतिदिन व्यवहार में आने वाले पदार्थ- ज्ञान के समान शास्त्र वचनों को ग्रहण कर सकता है, शास्त्र-वचनों के विशेष निर्देशों और इङ्गितों को समझ सकता है, शास्त्र-वचनों की सङ्गतियों के वैशिष्ट्य को जानकर उनके सम्बन्ध में निश्चयात्मक तथ्यों को व्यक्त कर सकता है और साथ ही महाज्ञानियों के ज्ञान के साथ उसकी बुद्धि तादात्म्य स्थापित कर लेती है, अतः उसकी ज्ञान शक्ति सद्यः स्फुरणशीला हो जाती है । मति-सम्पदा के इन्हीं क्रमिक स्तरों को अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा कहा जाता है । ४ यदि आचार्य की ज्ञान-शक्ति उत्कृष्ट है, उसकी प्रतिभा सर्वदा वही सोचती है जो शास्त्रानुकूल है, सांस्कृतिक मर्यादाओं में आवद्ध है, तो उसका प्रत्येक वचन जन-मन के लिए ग्राह्य हो जाता है, जनता उसकी वचन शक्ति के समक्ष नत मस्तक हो जाती है, उसकी वचन मधुरता जन-मन के लिये आल्हादकारी बन जाती है, उसकी बौद्धिक परिपुष्टता के लिये वरदान बन जाती है, उसकी वाणी राग-द्वेष एवं स्वार्थ की सीमाओं को तोड़कर उन्मुक्त रूप से प्रवाहित हो उठती है, उसकी वाणी से निश्चय का आलोक प्रसारित होने लगता है, अनिश्चयात्मकता का अन्धकार उसकी वचन सम्पदा के समक्ष कभी आ ही नहीं सकता है । शास्त्रकार इसीलिये आचार्य को आदेय वचन, मधुर वचन, अनिश्रितवचन और असंदिग्ध वचन कहते हैं । आचार्य आचरण करता ही नहीं, आचरण करवाता भी ; वह ज्ञान- सम्पत्ति का अर्जन ही नहीं करता, उसका विसर्जन भी करता है; उसे योग्य व्यक्तियों को बाँटता भी है, परन्तु उसी दशा में जबकि वह स्वयं 'सुत्तत्थविऊ' हो । जिसके पास कुछ है, वही दातव्य और देने योग्य पात्र का विचार भी करेगा । जिसके पास कुछ है ही नहीं, वह देगा भी क्या ? जिसका अपना ज्ञान कोष पूर्ण हो चुका है, वह ज्ञान के वितरण की शैली पर भी विचार करेगा, उसकी विधि निर्धारित करेगा, उसे विचारपूर्वक योग्य व्यक्ति को ही बांटेगा, वह कभी कच्चे घड़े में पानी भरने की भूल नहीं करेगा, वह जिज्ञासाशीलों को उतना ही १ आ-मर्यादया चरति गच्छतीत्याचार्यः । २ आचारेण वा चरन्तीत्याचार्याः । - आवश्यक चूर्णि १-६६३ ३ आ-मर्यादया तद्विषय-विनयरूपया चर्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकांक्षिभिः इत्याचार्यः । - आवश्यक चूर्णि टीका ४ उग्गह- मइ- सम्पया, ईहा मइ- सम्पया, अवाय मइ- सम्पया, धारणा - मइ- सम्पया । ५ आदेय - वयणे, यावि भवइ, महुर-वयणे यावि भवइ, अणिस्सिय-वयणे यावि भवइ, अविद्धवयणे यावि भवइ । - दशाश्रुत० ४/४ Jain Education International TECTOR अभिनन्दन श्री आनन्द अन्य 99 श्री आनन्दत्र ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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