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________________ .८४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड PART पतञ्जलि योगशास्त्र : एक चिन्तन 0 डा. वसन्त गजानन्द राहुरकर एम.ए., पी-एच.डी. (रीडर, संस्कृत उच्च अध्ययन केन्द्र, पूना विश्वविद्यालय) कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने कहा-हे अर्जुन ! तपस्वी, ज्ञानी और कर्म करने वाले की अपेक्षा योगी श्रेष्ठ है। अतः तू योगी बन ।' योगशास्त्र के इस सर्वोपकारित्व को लक्ष्य में रखकर मुमुक्षु साधकों को इसका सम्यग् परिज्ञान कराने के लिए आचार्य पतञ्जलि ने भारतीय वाङ्मय का गहराई से अनुशीलन-परिशीलन कर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा और ज्ञान के अनुभव के आधार पर योग-सूत्रों की रचना की। आज योगशास्त्र को संस्कृत वाङमय और भारत की एक अद्वितीय देन के रूप में माना जाता है। डॉक्टर कर्णसिंह के शब्दों में मानव के मस्तिष्क, मन, बुद्धि आदि का कार्य किस प्रकार चल रहा है, यह आज तक एक पहेली के रूप में रहा है। प्रस्तुत योगशास्त्र में भारत में प्राचीनकाल से अत्यधिक गवेषणा हुई है परन्तु आधुनिक विज्ञानशास्त्र के परीक्षण-प्रस्तर पर उस गवेषणा का परीक्षण एवं सम्वाद होना अपेक्षित है । कुण्डलिनी-जागरण और ध्यानातीत-समाधिमार्ग प्रभति विषयों पर भी प्रायोगिक स्तर पर संशोधन होना बहुत ही आवश्यक है। पातञ्जल योगदर्शन को हम भारतीय मनोविज्ञान कह सकते हैं। शिक्षा क्षेत्र में मनोबलवर्धन की दृष्टि से योग, आसन, आदि का प्रचार उपयुक्त है, इसलिए उसका प्रचार होना चाहिए । प्राचीन महर्षियों के अभिमतानुसार मानव 'अमृतस्य पुत्र' है किन्तु पतित नहीं। अत: योग-मार्ग से प्राण-शक्ति और ज्ञानमार्ग से अवधानशक्ति जागृत करके मानव के हित के लिए इन सुप्त शक्तियों का विकास आवश्यक है। योग को हम शास्त्र भी कह सकते हैं और कला भी। शरीर-पुष्टि अथवा रोग-मुक्ति तक ही योग सीमित नहीं है और न विभूति सम्पादन करना तथा चमत्कार से जन-मानस को चमत्कृत करना ही योग है। योगशास्त्र तो आत्मा की ऊर्ध्वमुखी विजय यात्रा का शास्त्र है। मानव के शरीर, मन, सुप्त शक्तियां, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य, नैतिक जीवन और आत्म-जागरण के कार्य में वृद्धि करना योगशास्त्र का उद्देश्य है। इसे हम मानव के विकास का शास्त्र भी कह सकते हैं क्योंकि यह हमें दिव्य व भव्य पथ पर बढ़ने की प्रबल प्रेरणा प्रदान करता है। पातञ्जल योगदर्शन अद्वैतवेदान्त का परिपूरक शास्त्र है। एक ही ब्रह्मविद्या के ये दो रूप हैं। इसमें प्रथम उपपत्यात्मक है और द्वितीय प्रयोगात्मक है। कुछ चिन्तकों की यह धारणा है कि ब्रह्मसूत्र में जो योग शब्द व्यवहृत हुआ है वह पातंजल योगशास्त्र ही है। उन चिन्तकों में प्रमुख चिन्तक वाचस्पति मिश्र हैं; परन्तु यह धारणा भ्रान्त है। वेदान्तसूत्रों के अनुसार द्वैत अनुकूल योग सम्भव नहीं है। उपनिषदों में प्रतिपादित योग का चरम उत्कर्ष भगवद्गीता में निहारा जा सकता है। योग का अर्थ चित्तवृत्तिनिरोध है। इस निरोध का वर्णन श्रीकृष्ण ने अर्जुन के उद्बोधन के लिए किया है। भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' शब्द जो प्रयुक्त हुआ है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस वेदोक्त ब्रह्मविद्या के योगशास्त्र रूप अंग को सूत्र रूप में प्रतिबद्ध कर पतञ्जलि ने उसे एक विशिष्ट शास्त्रीय रूप दिया है । पतञ्जलि ने समाधि-पाद, साधना-पाद, विभूति-पाद और कैवल्य-पाद के रूप में योगशास्त्र का विवेचन किया है। पतञ्जलि ने यम-नियमों का सूक्ष्म विवेचन किया है। मनोविज्ञान की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण विश्लेषण है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-ये पाँच यम; और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान-ये -. -----.. - . ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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