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________________ • ७४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड श्री अरविन्द-योग श्री अरविन्द के योग का प्रारम्भ यद्यपि प्राणायाम से और सीधे से राजयोग के रूप में हुआ, बाद में प्रत्येक योग-मार्ग में उनके व्यापक अनुभवों एवं उनके द्वारा सभी योग-पद्धतियों के संश्लेषण के बाद पूर्णयोग के रूप में विकसित हुआ। अपनी कृतियों में श्री अरविन्द एक स्थल पर लिखते हैं कि सम्पूर्ण जीवन ही एक योग है। उनके अपने मामले में अक्षरशः ऐसा ही था। अपने महत् उद्देश्य की चेतना तथा एक उच्च आध्यात्मिक जीवन की अभिज्ञा के प्रारम्भ से ही उन्होंने एक अभ्यासरत योगी का जीवन बिताया जिसमें किसी प्रकार के शैथिल्य व कमी के लिए कोई स्थान नहीं था। उनकी योग-साधना अपने पद्धति-वैशिष्ट्य एवं सिद्धि की दृष्टि से परिपूर्णता तो पाण्डिचेरी में प्राप्त करती है किन्तु इसका प्रारम्भ तो उनके इंगलैण्ड प्रवास के पश्चात् भारतभूमि पर पदार्पण के तुरन्त बाद हो गया था। अपोलो बन्दर पर असीम मानसिक शान्ति का अनुभव भावी महायोगी की साधना का प्रथम सोपान था जिसके अगले महत्वपूर्ण चरण लेले की सहायता से योगाभ्यास, अलीपुर कारा में गीतोक्त योग की साधना एवं वासुदेव-दर्शन व विवेकानन्द-वाणी का श्रवण, चन्द्रनगर में वेदोक्त देवियों का दर्शन आदि उनके पूर्णयोग की पूर्व पीठिका हैं। उनकी साधना का विश्लेषण आसान नहीं है। दिनकर की यह उक्ति उचित ही प्रतीत होती है कि "भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में आइन्स्टीन के सापेक्षवाद की व्याख्या जितनी कठिन है, अध्यात्म के क्षेत्र में अरविन्द के अतिमानस व अतिमानव की व्याख्या भी उतनी ही दुरूह सिद्ध हुई है।" गुरु बिना साधना श्री अरविन्द की योग-साधना इस रूप में भी परम्परा से हटकर थी कि उन्हें सामान्य अर्थों में किसी गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त नहीं था। उन्होंने स्वयं लिखा है-"मुझे एक आन्तरिक प्रेरणा हुई और मैंने योगाभ्यास किया। एक विशेष स्तर पर, जब मैं आगे बढ़ने में असमर्थ था, लेले ने मेरी किंचित् सहायता की। जब मैं पाण्डिचेरी आया मुझे अपनी साधना के लिए अन्तःकरण से कार्यक्रम प्राप्त हुआ।"" अरविन्दीय साधना का महत् उद्देश्य । श्री अरविन्द का उद्देश्य था---मानव-जीवन को सर्वांशतः रूपान्तरित कर उसमें अतिमानसिक ज्योति की प्रतिष्ठा करना । उनके सामने एक व्यक्ति की मुक्ति का प्रश्न नहीं था, यह था समग्र मानवता की जीवन-मुक्ति का प्रश्न, यह थी सम्पूर्ण मानव-जाति के विकास और रूपान्तर की समस्या । ऐसी समस्या जिसके हल के लिए अब तक किसी ने प्रयत्न नहीं किया है। उनका योग प्राचीन भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग से भिन्न है। यह मन से परे अतिमानस में प्रवेश कर उसे इस पृथ्वी पर उतार लाना चाहता है जिसके द्वारा मनुष्य की बुद्धि, जीवन और शरीर का रूपान्तर हो जाय-हमारे अन्नमय, मनोमय, प्राणमय कोषों का परिशोधन कर उन्हें दिव्य बना सके । किन्तु उनका तिरस्कार इसे स्वीकार्य नहीं है। वे जिस योग और साधना की बात करते हैं उसमें स्थूलतम भौतिक से लेकर सूक्ष्म चैतन्य तक सभी साधन हैं। जीन हर्बर्ट ने लिखा है-"अरविन्द की शिक्षा की एक विशिष्टता यह है कि वे जीवन के किसी भी पक्ष को, यहाँ तक कि पौद्गलिक भौतिक तत्त्व की भी उपेक्षा नहीं करते। उनका कथन है कि दिव्य शक्ति को सबसे निचले स्तर तक उतरना पड़ेगा और सब कुछ का आध्यात्मिक रूपान्तरण करना होगा क्योंकि तभी उसकी क्रिया सही अर्थों में पूर्ण हो सकती है।" उनकी साधना जीवननिष्ठ थी। जीवन से पृथक् होकर योग उनकी दृष्टि में अर्थहीन है। किन्तु जीवन में योग उतरेगा कैसे? श्री अरविन्द का योग जीवन को ईश्वरीय कार्य के लिए ईश्वरीय यन्त्र में बदल देना चाहता है । वे. मानते हैं कि दिव्य चेतना की उपलब्धि, दिव्य चेतना द्वारा मानवीय चेतना का स्वीकरण, शांति, प्रकाश, प्रेम, शक्ति और आनन्द की प्राप्ति और सर्वोपरि स्वयं को ईश्वरीय इच्छाशक्ति और क्रिया के लिए पूर्ण तैयार यन्त्र के रूप में ढाल देना ही इस योग का उद्देश्य है । प्रायः अध्यात्म-पथ के पथिक सांसारिक हलचलों के प्रति पूर्ण उदासीन रहकर या उन्हें त्याज्य समझकर सामान्य लोगों से परे स्वनिर्मित अलग वातावरण में ही खोये रहते हैं । यद्यपि प्रकट रूप में श्री अरविन्द बाह्य जगत से सर्वथा दूर थे, एक रहस्य के आवरण से आवेष्टित थे किन्तु उनकी अन्तःसलिला इस भौतिक जगत के दिव्य रूपान्तरण के उद्देश्य की ओर ही अभिमुख थी । इस दिव्य प्रक्रिया की पूर्ति हेतु उन्होंने अत्यन्त निष्ठा से कार्य किया। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में अटूट लगन से काम करता है, कठिनाइयों में भी आनन्द मानता है ठीक उसी प्रकार रूपान्तर की प्रक्रिया में श्री अरविन्द ने एक सच्चे वैज्ञानिक के धैर्य, दार्शनिक की दृष्टि, कवि की कल्पना और निरन्तर श्रमरत श्रमिक का कठोर अक्लान्त श्रम कर अपना प्रयोग किया। वे जीवन में रहकर जीवन को बदलना चाहते थे। ------ ० O Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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