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________________ योग और परामनोविज्ञान ७१ गया है । अनेक उपनिषदों में भी परामनोविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विवरण बिखरे पड़े हैं। उपनिषदों में मन और इन्द्रियों के नियन्त्रण से मिलने वाली शक्तियों का उल्लेख है । कठ, तैत्तिरीय तथा मैत्रायणी उपनिषदों में योग की क्रियाओं का उल्लेख किया गया है । षड्दर्शनों के ग्रन्थों में किसी न किसी प्रकार से योग और उससे प्राप्त होने वाली सिद्धियों का उल्लेख किया गया है। चार्वाक और मीमांसा दर्शनों को छोड़कर अन्य सभी आस्तिक और नास्तिक भारतीय दर्शनों के ग्रन्थों में अतिसामान्य अनुभवों और शक्तियों का उल्लेख पाया जाता है । प्रशस्तपाद ने यौगिक प्रत्यक्ष को युक्त और अयुक्त दो वर्गों में विभाजित किया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने, छान्दोग्य उपनिषद् में प्रजापति ने, कठोपनिषद् में यम ने और गौड़पाद ने अपनी कारिका में योग का उल्लेख किया है। जैनदर्शन में योग और परामनोविज्ञान भारतवर्ष में केवल वैदिक दर्शनों में ही नहीं बल्कि जैन और बौद्ध दर्शनों में भी अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने के अभ्यासों का वर्णन मिलता है । इस दृष्टि से जैन आचार्यों ने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं जिनका परामनोविज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्व है। जैनों में जीव का मनोविज्ञान बताते हुए अनेक प्रकार की साधनाओं के द्वारा अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने का उल्लेख है। जैनों के अनुसार इन्द्रियप्रत्यक्ष के अलावा अतीन्द्रियप्रत्यक्ष भी सम्भव है । जैन ग्रन्थों में मनः पर्याय, अतीन्द्रियप्रत्यक्ष, मनोगति, सर्वज्ञानित्व आदि की चर्चा की गयी है । सकलज्ञान से तात्पर्य सभी वस्तुओं का ज्ञान है । अवधि और मनःपर्याय ये सकलज्ञान के दो प्रकार हैं। अवधिज्ञान प्राप्त होने पर अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं जैसे इससे भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कालों और निकट तथा दूर सभी देशों की रूपधारी वस्तुओं का ज्ञान सम्भव है । कर्मक्षय हो जाने से ये शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं । भिन्नभिन्न स्थितियों में अवधिज्ञान में आंशिक अन्तर पाया जाता है । अंगुल अवधिज्ञान छोटी से छोटी वस्तु का ज्ञान है । लोकअवधिज्ञान बड़ी से बड़ी वस्तु का ज्ञान है । अवधिज्ञान को स्थूल रूप से दो वर्गों में बाँटा गया है - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान केवल स्वर्ग और नरक के निवासियों को प्राप्त होता है। मानव और पशुओं को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान प्राप्त हो सकता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान को भी आगे छ: वर्गों में बाँटा गया है। प्रकार भेद से भी अवधिज्ञान के कुछ वर्गीकरण पाये जाते हैं जैसे देशावधि, परमावधि सर्वावधि इत्यादि । अवधिज्ञान के अतिरिक्त सकलज्ञान का दूसरा प्रकार मनःपर्याय है। अवधिज्ञान में देशकाल में दूरस्थ वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । मनःपर्याय में दूसरों के विचारों को प्रत्यक्ष रूप से जाना जा सकता है । इस सम्बन्ध में विभिन्न जैन विचारकों में न्यूनाधिक मतभेद भी पाया जाता है। मनःपर्याय के दो प्रकार माने गये हैं- ऋजुमति और विपुलमति । पहले में दूसरे के मन के वर्तमान विचारों का ज्ञान होता है तथा दूसरे के मन के भूत और भविष्य के विचारों को जाना जा सकता है। अवधि और मनः पर्याय, सकलज्ञान के ये दोनों प्रकार कर्म के बन्धन और आवरण के हट जाने से प्राप्त होते हैं । कर्म का आवरण हटाने के लिए जैन साहित्य में अनेक साधनाओं का उल्लेख किया गया है। जैन साधना में सर्वोच्च स्थिति को केवलज्ञान कहा गया है। इस प्रकार की स्थिति प्राप्त व्यक्ति के लिए कोई भी ज्ञान असम्भव नहीं है क्योंकि उसकी आत्मा पर से कर्म का आवरण पूर्णतया हट चुका है। जैन ग्रन्थों में पातंजल योग से कुछ भिन्न योग-साधना की प्रक्रिया मिलती है। जैन विद्वानों के लिए योग चारित्र है। इसके लिए गुप्ति समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय इत्यादि विभिन्न प्रकार की साधनाओं का उल्लेख किया गया है। आध्यात्मिक विकास में १४ गुणस्थान माने गये हैं। ये विभिन्न सोपान हैं। अध्यात्म की साधना में योग के ५ सोपान माने गये हैं-अध्यात्म, भावना, समता, वृत्तिसंक्षय तथा ध्यान । आत्मा पर कर्म-पदार्थ का आवरण लेप्य के रूप में होता है। जैन आचार्यों ने अनेक प्रकार की लेप्यों की चर्चा की है और उनको हटाने के उपाय बताये हैं । 1 परामनोविज्ञान के क्षेत्र में भारतीय मनोवैज्ञानिकों के योगदान के इस लेख में दिये गये संक्षिप्त विवरण से यह अवश्य सिद्ध होता है कि भविष्य में व्यवस्थित अनुसन्धान करने पर इस दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जा सकेगा। हर्ष है कि आज देश में अनेक विश्वविद्यालयों में योग और परामनोविज्ञान के विषय में अनुसन्धान किये जा रहे हैं । इनमें डा. के. रामकृष्ण राव के निर्देशन में आन्ध्र विश्वविद्यालय का परामनोविज्ञान केन्द्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है और इसमें प्रामाणिक अनुसन्धान होने की सम्भावना है। इलाहाबाद में राज्य मनोविज्ञानशाला के भूतपूर्व निर्देशक डा. जमनाप्रसाद तथा उनके सहयोगियों ने भी परामनोविज्ञान के क्षेत्र में अनुसन्धान को आगे बढ़ाया है । राजस्थान में परामनोविज्ञान को सेठ सोहनलाल स्मारक संस्था और बाद में राजस्थान विश्वविद्यालय में परामनोविज्ञान विभाग में श्री एच. एन. बैनर्जी के निर्देशन में परामनोविज्ञान के क्षेत्र में अनेक अनुसन्धान किये गये हैं। इन केन्द्रों के Jain Education, International For Private & Personal Use Only 236 www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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