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________________ योग और परामनोविज्ञान ६९ शारीरिक कष्टो पर पूर्णतया विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। शुक्राचार्य की कथा यह दिखाती है कि इच्छा-मात्र से नया जन्म कैसे प्राप्त किया जा सकता है। बलि की कथा में निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने की विधि बतायी गयी है। काकभुशुण्डि की कथा में असीम रूप से लम्बे और पूर्ण स्वस्थ जीवन की सम्भावना बतायी गयी है। अर्जन की कथा में भविष्य का अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष दिखाया गया है। शतरुद्र की कथा आत्मा के पुनर्जन्म में विचार और इच्छा की शक्ति दिखाती है। शिकारी और साधु की कथा समाधि का अनुभव बताती है। इन्द्र की कथा लघिमा सिद्धि का उल्लेख करती है। विपश्चित की कथा पुनर्जन्म पर विचार और इच्छा की शक्ति दिखाती है। इन सब कथाओं के अतिरिक्त योगवाशिष्ठ में उपर्युक्त अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने की विधियों की भी व्यापक चर्चा की गयी है। इसमें यह बताया गया है कि कैसे मन को सर्वशक्तिमान बनाया जा सकता है। इसके लिये कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर प्राण का नियन्त्रण, चित्त का शुद्धीकरण और नियन्त्रण तथा आध्यात्मिक प्रकृति के साक्षात्कार का उल्लेख किया गया है। योगवाशिष्ठ में कुण्डलिनी शक्ति को जगाने की प्रक्रिया को विस्तारपूर्वक बताया गया है। इसके अतिरिक्त योगवाशिष्ठ में सभी प्रकार के शारीरिक रोगों के उपचार की विधि बतायी गयी है। इसके लिये मन्त्रों के प्रयोग की विधि भी बतायी गयी है। योगवाशिष्ठ में ऐसी क्रियाएँ बतायी गयी हैं जिनसे मनुष्य रोग, जरा और मृत्यु से बच सकता है। योगवाशिष्ठ में दूसरों के मन के विचारों को जानने के उपाय भी बताये गये हैं। ये मन:पर्याय के उपाय हैं । इस ग्रन्थ में सिद्ध आत्माओं के लोक में प्रवेश करने के उपाय भी बताये गये हैं। इसमें ऐसी क्रियाओं की चर्चा की गयी है जिनको करने से स्थूल आकार छोड़कर सूक्ष्म आकार प्राप्त किया जा सकता है। योगसूत्र में परामनोवैज्ञानिक विवरण योगवाशिष्ठ के अतिरिक्त योगसूत्र में परामनोविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कथन बिखरे पड़े हैं। वास्तव में यदि योगसूत्र को परामनोविज्ञान की सबसे अधिक प्राचीन पुस्तक कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। परामनोविज्ञान की दृष्टि से योग के महत्व के विषय में पहले कहा ही जा चुका है। यहाँ पर उन सिद्धियों का विवरण दिया जायेगा जिनको प्राप्त करने के उपाय योगसूत्र में बताये गये हैं। सिद्धियों के विषय में पतंजलि ने लिखा है, "जगमौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः" अर्थात् सिद्धियाँ पाँच प्रकार की होती हैं जिनमें से कुछ जन्म से, कुछ औषधियों से, कुछ मन्त्रों से, कुछ तप से और कुछ समाधि से उत्पन्न होती हैं। इनका विवरण निम्नलिखित है : १. जन्म से प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ-अनेक लोगों को मनःपर्याय, अतीन्द्रियप्रत्यक्ष इत्यादि अतिसामान्य शक्तियां जन्म से ही प्राप्त होती हैं। कभी-कभी आयु बढ़ने पर ये नष्ट हो जाती हैं। २. औषधि से प्राप्त सिद्धियाँ-वेदों से लेकर आज तक अनेक संस्कृत ग्रन्थों में ऐसी औषधियों का उल्लेख किया गया है जिनके सेवन से अनेक अतिसामान्य शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। वेदों में सोमरस की भारी महिमा बतायी गयी है। अन्य ग्रन्थों में अनेक अन्य प्रकार की औषधियों का उल्लेख पाया जाता है। ३. मन्त्रज सिद्धियाँ-संस्कृत साहित्य में मन्त्रों से प्राप्त शक्तियों का उल्लेख पाया जाता है। मन्त्र का जप श्रद्धा सहित किया जाना चाहिए । मन्त्र दो प्रकार के होते हैं-ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक । पहले प्रकार में ध्वनि का विशेष महत्त्व होता है। इसका उदाहरण ओंकार का मन्त्र है। वर्णात्मक मन्त्र में व्याकरण के नियमों के अनुसार मिलाये हए शब्द होते हैं जैसे 'नमो नारायणाय' । मन्त्र देने वाले को ऋषि कहा जाता है। ऋषियों में अतिसामान्य शक्ति होती है। अस्तु, उनसे निकले हुए मन्त्र भौतिक क्रिया के साधन बन जाते हैं। ४. तपोजन्य सिद्धियाँ संस्कृत ग्रन्थों में ऐसी अनेक सिद्धियों का उल्लेख पाया जाता है जो विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक तप से प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए अहिंसा का पूर्ण रूप से अभ्यास करने पर साधक में यह शक्ति आ जाती है कि उसके सम्पर्क में आने वाले पशु भी हिंसा भाव छोड़ देते हैं। उपर्युक्त सिद्धियों के अतिरिक्त पतंजलि ने समाधिजन्य सिद्धियों का भी उल्लेख किया है। संक्षेप में ये । सिद्धियाँ निम्नलिखित हैं : १. प्रातिभज्ञान-प्रातिभज्ञान वह है जिसमें कुछ भी अज्ञेय. न हो । योग के साधन से इस प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रातिभज्ञानप्राप्त व्यक्ति के विषय में पतंजलि ने लिखा है, "प्रातिभाद्वा वा स्वतः सर्वम् । प्रातिभज्ञान की सिद्धि ध्यान से होती है। ध्यान से व्यक्ति वासना से ऊपर उठ जाता है। २. भुवनों का ज्ञान–पतंजलि के अनुसार जिस वस्तु की कामना हो उस पर अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि का अभ्यास करने से वह वस्तु प्राप्त हो जाती है। भुवनों के ज्ञान के लिए सूर्य पर संयम लगाना चाहिए। पतंजलि के शब्दों में "भुवनज्ञान सूर्य संयमात् ।" इसको स्पष्ट करते हुए भाष्यकार ने लिखा है कि भूमि आदि सात लोक, अवीच आदि सात महानरक तथा महातल आदि सात पाताल, यह भुवन पद का अर्थ है। तीन ब्रह्म लोक हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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