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________________ आध्यात्मिक योग और प्राणशक्ति ५६ . अब तीसरी बात है-व्यवहार की। व्यवहार की दृष्टि से साधक को करुणा का अभ्यास करना चाहिए। यह अभ्यास लम्बे समय तक चले । प्रतिपल हम इसका जागरूकता से अभ्यास करें । अपने बच्चों के प्रति, अपने परिवार के प्रति, अपने नौकर के प्रति करुणा करें, सबके प्रति करुणा करें। किसी के प्रति क्रूर व्यवहार न करें, क्रूरता न दिखायें । जब कभी मन में क्रूरता आयेगी, हम संभलेंगे और करुणा करेंगे। यदि करुणा हमारे मन में आती है, जीवन में आती है तो अनेक व्याधियाँ अपने आप मिट जाती हैं। बहुत सारे अन्याय क्रूरता के कारण होते हैं। आदमी क्रूर होकर अन्याय करता है । यदि करुणा का अभ्यास होता है, विकास होता है तो ये सारी स्थितियां समाप्त हो जाती हैं। जैन परम्परा में यह माना गया है कि जिसमें करुणा नहीं है बह सम्यकदृष्टि भी नहीं हो सकता। सम्यक्दृष्टि का एक लक्षण है-अनुकम्पा । यदि आदमी में अनुकम्पा है, करुणा है तो समझ लो कि वह सम्यक्दृष्टि है। यदि करुणा नहीं है तो वह मिथ्यादृष्टि है । यह कसौटी है पहचानने की कि कौन सम्यकदृष्टि है और कौन मिथ्यादृष्टि। यह हमारे व्यवहार का सूत्र है। ___ अध्यात्म की साधना में अहं का विसर्जन, प्राण की साधना में दीर्घश्वास तथा समताल-श्वास और व्यवहार की साधना में करुणा का अभ्यास—ये प्रयोग के तीन आयाम हैं। इनसे तीन बातें फलित होंगी, सिद्ध होंगी। पहली बात होगी-अहं का विसर्जन, दूसरी बात होगी-वासना-विजय, तीसरी बात होगी-करुणा का अभ्यास । चौथी बात है-जप । इन तीनों बातों को बल देने के लिए जप बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि इससे हमारी सारी शक्ति में परिवर्धन होता है। शक्ति का विकास होता है। जप प्राणशक्ति और आत्मशक्ति दोनों को प्रभावित करता है। इसके लिए आप नवकार का जप करते हैं, माला फेरते हैं। वही चले आपका क्रम । विधि में थोड़ा सा परिवर्तन आपको सुझा दूं। कोई नवकार मंत्र की एक माला फेरता है। कोई दो माला और कोई पाँच माला फेरता है। यह आप फेरते रहें। एक परिवर्तन करें । एक माला मेरे द्वारा बतायी विधि से फेरें। आप नमस्कार मंत्र का एक चरण लें‘णमो अरहंताण' । इस चरण का आपको जप करना है । श्वास लेते समय इसका जप न करें, उच्चारण न करें। श्वास छोड़ते समय भी इसका जप न करें। पूरक में भी इसका जप न करें और रेचन में भी इसका जप न करें। इसका जप कुंभक की अवस्था में करें। आपने श्वास लिया, पूरक किया, अभी उसे अन्दर टिकाए हुए हैं। कुम्भक की अवस्था में हैं । श्वास को बाहर छोड़ा नहीं है । उस अवस्था में आप उसका जप करें। 'णमो अरहंताण' का उच्चारण करें। फिर श्वास को निकाला, फिर श्वास लिया। निकालते समय भी जप नहीं करना है। न लेते समय करना है और न निकालते समय करना है। फिर श्वास को अन्दर रोका, कुंभक किया। तब 'णमो सिद्धाणं' का जप करें। कुंभक की स्थिति में ही जप हो । यह जरूरी नहीं कि पूरी माला ही फेरी जाये । दस बार भी इस विधि से यदि नमस्कार महामन्त्र का जप होता है तो वह बहुत लाभदायी है, मूल्यवान् है । जितनी आपको सुविधा है, उतनी देर करें। पर एक सुझाव है। कम से कम इक्कीस बार अवश्य करें। एक माला फेरते हैं तो बहुत अच्छा है अन्यथा इतना तो अवश्य ही हो । आपकी स्थिरता बढ़ेगी। एकाग्रता बढ़ेगी। जप करने की यह एक विधि है। कुंभक की स्थिति में जप हो यानी पूरक और रेचन के बीच की स्थिति में जप हो। यह एक विधि है। इसके साथ-साथ रंग का ध्यान भी आवश्यक है तो स्थान का ध्यान भी बहुत जरूरी है। किस पद को किस रंग के साथ, शरीर के किस भाग में जपना है, यह जानना भी जरूरी है। जप के साथ चार बातें जुड़ गयीं-पद, रंग, स्थान और श्वास की स्थिति । हम ‘णमो अरहताणं' को लें। इसका वर्ण है श्वेत और स्थान है-मस्तिष्क, सहस्रार चक्र। इस पद का उच्चारण करते समय मन सहस्रार चक्र में स्थित हो और श्वेत वर्ण का चिन्तन हो, आभास हो। सहस्रार चक्र अर्थात् ब्रह्मरंध्र, तालु के ऊपर का भाग । हमारी स्थिति कुंभक की हो । तो चार बातें हो गयीं--- पद है—णमो अरहंताणं । रंग है-श्वेत। स्थान है-सहस्रार चक्र (ब्रह्मरंध्र, तालू के ऊपर का स्थान) । श्वास की स्थिति है----कुंभक । अन्तर् कुंभक । हम 'णमो सिद्धाणं' को लें। अब हम ‘णमो अरहताण' से आगे चलें। णमो सिद्धाणं' को लें। इसका वर्ण है लाल । इसका स्थान है-ललाट का मध्य भाग, आज्ञा चक्र । श्वास की स्थिति होगी–अन्तर् कुंभक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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