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________________ ४० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड मनोरोध के सन्दर्भ में, अभ्यास और वैराग्य का आधार यह है कि मनुष्य के मन में संपरिवर्तन लाया जा सकता है। मन की वृत्तियों को रूपान्तरित किया जा सकता है। अभ्यास और वैराग्य इस बात का स्पष्ट संकेत करते हैं कि वर्तमान स्थिति में जैसा मनुष्य का मन है, वह उससे भिन्न हो सकता है, उसे परिवर्तित किया जा सकता है। परिवर्तन से मन की समूची स्थिति सँवर-सुधर सकती है और मन में स्थिरता आ सकती है। वास्तव में, अभ्यास एक प्रकार का आध्यात्मिक प्रशिक्षण है। मनुष्य का मन प्रशिक्षण का पुतला है । उसे जैसा प्रशिक्षण दिया जाय, वह वैसा ही हो जाता है। भोग के प्रशिक्षण से मन भोगी तथा चंचल और योग के प्रशिक्षण से मन योगी तथा स्थिर हो जाता है । समता, सत्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, शौच, सत्य, संयम, तप, स्वाध्याय, त्याग, वैराग्य, ज्ञान और ध्यानरूपी सद्अभ्यास मन को रूपांतरित करने का एक प्रशिक्षण ही तो है। ज्यों-ज्यों सअभ्यास से मन की स्थिरता होती जाती है। त्यों-त्यों प्राण, वचन, तन तथा दृष्टि में भी स्थिरता आती जाती है। अभ्यास का अर्थ है मन की स्थिरता के लिए यत्न करना। मन की स्थिरता के लिए बार-बार प्रयास करने का नाम ही अभ्यास है।" अदम्य उत्साह एवं पूरी आस्था के साथ चिरकाल तक निरन्तर प्रयास करने से ही अभ्यास परिपुष्ट एवं दृढ़ होता है।३२ अभ्यास के साथ वैराग्य का विधान मन की दौड़ और चंचलता को रोकने के लिए है। राग तथा आसक्ति से मन चंचल होता है और वैराग्य तथा अनासक्ति से मन स्थिर होता है। जब तक मनुष्य के मन में कुछ भी पाने का राग है, संसार की कोई भी काम्य वस्तु प्राप्त करने की वृत्ति एवं लालसा है; तब तक मन स्थिर नहीं हो सकता, वह चंचल ही बना रहेगा । वैराग्य से काम्य वस्तु के प्रति लोलुपता, आसक्ति एवं तृष्णा नहीं रहती। द्रष्ट (लौकिक) आनुश्रविक (अलौकिक) विषयों के प्रति तृष्णा न होना ही तो वैराग्य है। वैराग्य से मन स्थिरता की स्थिति में पहुँच जाता है। , ज्ञानयोग: मनोरोध का एक अमोघ साधन मनोरोध एवं मनोनिग्रह योग का प्रथम उद्देश्य है । मनोनिग्रह तथा मनोरोध मात्र कहने अथवा जानने से नहीं हो सकता। उसके लिए तो चिरकाल तक निरन्तर निष्ठापूर्वक बहु-आयामी प्रयास और अनेक उपाय करने होते हैं। जैन-योग की दृष्टि से ज्ञान मनोरोध एवं मनोनिग्रह का श्रेष्ठ साधन है । वैदिक परम्परा की दृष्टि से भी ज्ञान को मनोनिग्रह तथा मनोनिरोध का प्रमुख उपाय माना गया है। महर्षि वसिष्ठ कहते हैं-राम, योग और ज्ञान मनोनिरोध के दो उपाय हैं । चित्त-वृत्तियों का निरोध योग है और आत्म-स्वरूप की सच्ची अनुभूति ज्ञान है।" जैन आगम-बाङमय में इस सन्दर्भ में केशी-गौतम का एक सुन्दर संवाद है। केशी स्वामी गौतम से पूछते हैं-मन का साहसिक, चंचल और दुष्ट घोड़ा दौड़ रहा है । गौतम ! तुम उस पर सवार हो। वह तुम्हें उन्मार्ग पर क्यों नहीं ले जाता ? गौतम बोले--मुनिवर ! मैंने उसे ज्ञान की लगाम से वश में कर लिया है। मेरे द्वारा नियन्त्रित और वश में किया गया वह घोड़ा अब उन्मार्ग पर नहीं जाता, प्रत्युत मार्ग पर ही चलता है । प्रस्तुत संवाद में ज्ञान को मनोनिग्रह का श्रेष्ठ उपाय बताया गया है। ज्ञान का अर्थ शास्त्रीय ज्ञान नहीं है। ज्ञान से अभिप्रेत है 'स्व' का आत्यन्तिक बोध, अपनी सत्ता का परिज्ञान, अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभति । ज्ञान का अधिष्ठान शास्त्र नहीं, आत्मा है। यह आत्म-बोध ही मानव-जीवन का सार है। किन्तु यह आत्म-ज्ञान अत्यन्त कठिन है। आत्म-ज्ञानी वह है, जिसकी आँखें 'स्व' की ओर लगी हैं । जीवन में जो महान् है, उसका स्मरण और जो क्षुद्र है, उसका विस्मरण-यही तो है अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति । वैराग्य इसी आत्म-ज्ञान का फल है । अपने अस्तित्व के प्रति उन्मुख तथा विषयों से विमुख होने का नाम ही उपरति (वैराग्य) है। जब तक साधक को 'स्व' के अस्तित्व का प्रबल साक्षात्कार नहीं होता, तब तक 'पर'–बाह्य तत्त्वों के प्रति मन में आसक्ति एवं तृष्णा बनी रहती है । आत्म-परिबोध होते ही स्थिति एकदम बदल जाती है। जो आत्मज्ञानी है, वह विरक्त है और जो विरक्त है, वह आत्मज्ञानी है। ज्ञान मनुष्य के अनुरक्त मन को विरक्त कर देता है। इसीलिए मनरूपी मदोन्मत्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान को अंकुश की उपमा दी गयी है। जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता है, वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी नहीं है और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है, वह 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि भी नहीं रखता है। 'स्व' के प्रति अनुरक्ति और 'पर' के प्रति विरक्ति से मन में वितृष्णा आ जाती है। फलतः मन की दौड़ बन्द हो जाती है। वह चंचल नहीं रहता । तृष्णा ही मन को दौड़ाती है, चंचल बनाती है। वितृष्णा से मन स्थिर एवं शांत हो जाता है। ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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