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________________ . १० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड अथवा स्वार्थबुद्धि के कारण और प्रमाद के कारण भी हो सकते हैं। मानव स्वभाव की सरलता और स्वाभाविक जीवन तर्क पर नहीं, अन्धविश्वास पर भी नहीं, परन्तु श्रद्धा और विश्वास पर अवश्य ही आश्रित है। योग-मार्ग में चित्त में प्रसारित होने वाली वृत्तियों को समझने के लिए और उनसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए मार्ग बताया गया है तथा अपने सही मार्ग को देखने और समझने के लिए संकेत किया गया है। योग का हेतु अन्तिम सूत्रों में पतंजलि ने स्वरूप-प्रतिष्ठा कहा है। इस स्वरूप-प्रतिष्ठा को समझने की यदि तीव्र आकांक्षा होगी तो यह बहुत सरल है और यदि अपना प्रयत्न भावनात्मक और क्षणिक वैराग्य से प्रभावित होगा, तो बहुत कठिन है। योग-सूत्रों में जो क्रमिक विकास हमें दिखता है उसके पीछे एक ऐसा प्रयत्न है जिसमें साधक सहज और स्वाभाविक अवस्था में रहता हुआ; सब प्रकार के सामाजिक अनुभवों से गुजरता हुआ भी अपने स्वरूप को जानने के लिए प्रयत्नशील रहता है। यद्यपि पतञ्जलि कुछ मार्गों की ओर संकेत करते हैं तथापि उन्हें इस बात की पूर्ण कल्पना है कि साधनावस्था में मशीन की तरह निश्चित मार्ग नहीं बताया जा सकता; मार्ग की ओर संकेत ही किया जा सकता है। चलने की प्रेरणा दी जा सकती है, परन्तु चलने के लिए जो प्रयत्न है वह स्वयं साधक को ही करना होगा। और इसीलिए सम्भवतः वे ऐसा कहते हैं कि आपकी जैसी इच्छा है आप वैसा करें।२२ हठयोग के साहित्य में भी कुछ इसी प्रकार का विवेचन है। यहाँ इस बात का संकेत किया गया है कि जब तक साधक स्वयं क्रियारत नहीं होगा उसे किसी प्रकार का लाभ होने की सम्भावना नहीं है। वेश धारण करने से किसी भी प्रकार का मार्ग मिलने की सम्भावना नहीं है, लोगों में भ्रम अवश्य प्रसारित हो सकता है। "विवेक मार्तण्ड' में बड़े कड़े शब्दों में साधक की तुलना 'गधे' के साथ की गयी है। यदि संकल्प स्पष्ट न हो तो धूल में जीवन व्यतीत करना अथवा ठण्डी और गर्मी से शरीर को कष्ट देना व्यर्थ है क्योंकि गधा हमेशा गर्मी-सर्दी सहन करता रहता है और धूलमिट्टी से भी लथपथ रहता है । साधक यद्यपि इसी प्रकार का दिखता है तो भी उसका हेतु बड़ा स्पष्ट रहता है और जब तक हेतु स्पष्ट न रहे तब तक बाह्याडम्बर एक प्रकार का बन्धन ही रहता है ।२४ पतञ्जलि ने तो आसनों का वर्णन करते समय भी स्वयं अनुभव लेने के लिए प्रेरित किया है । उन्होंने शरीर को जैसी साधक की इच्छा हो वैसा रखने का संकेत किया है । इससे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि साधना सामूहिक रूप से नहीं की जा सकती। कुछ साधक एकत्र रह सकते हैं, परन्तु अनुभूति व्यक्तिगत और मर्यादित रूप में ही होगी। दूसरे शब्दों में हम ऐसा कह सकते हैं कि साधक का जीवन आडम्बरहीन, निष्कपट, एक दृष्टिकोण को सामने रखते हुए जीने की आकांक्षा और अपने स्वरूप को समझने का विश्वास-यही योग का एक सहज स्वरूप है। जैन परम्परा में योगशास्त्र के रचयिता आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र के चौथे और पांचवें प्रकाश में आसन और प्राणायाम का विस्तृत विश्लेषणात्मक वर्णन करते हैं। यदि इस ग्रन्थ को पांचवें प्रकाश तक ही पढ़ा जाए तो जैन आचार्य के प्रति भ्रम हुए बगैर नहीं रहेगा। कुछ ऐसी भी सम्भावना साधक को दिखेगी कि जैन आचार्य या तो योगमार्ग से प्रभावित हैं या उसके प्रवर्तक हैं। परन्तु जब हम छठे प्रकाश को देखते हैं तो हमें एक सौम्य झटका-सा लगता है ।२५ जिन आचार्यश्री ने आसन और प्राणायाम के विस्तृत विश्लेषण में इतना समय लगाया उन्हें इसकी अनावश्यकता के लिए यह श्लोक लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? हेतु स्पष्ट दिखता है । यद्यपि जैन आचार्य योगमार्ग का संकेत करते हैं तो भी यह मार्ग बाधा स्वरूप है, इस बात का भी उन्हें पूर्णरूप से ध्यान है और इसीलिए साधकों को उन्होंने स्पष्ट संकेत दे दिया है। साधना-मार्ग में एक विस्तृत स्वरूप की स्वतन्त्रता देने के बाद वह स्वतन्त्रता उच्छृखलता में परिवर्तित न हो जाए, ऐसी सावधानी हमें स्पष्ट रूप से परखनी होती है । आडम्बर और प्रमाद का भी यहाँ ध्यान रखना पड़ता है। जैन साधना पद्धति के परम्परागत रूप में टिके रहने का सम्भवतः यही कारण रहा होगा। मानव की सहज वृत्तियों को एक नियन्त्रित मार्ग-दर्शन इस जीवन प्रणाली में पग-पग पर दिखता है। प्रस्तुत निबन्ध ध्यान-परम्परा को सम्मुख रखकर चिन्तन करने के लिए निश्चित किया गया है और ध्यानपरम्परा का सम्पूर्ण प्राचीन और आधुनिक साहित्य मानव की व्यक्तिगत अनुभूति को ही ध्यान में रखकर सृजित किया गया है। योग-परम्परा और जैन-परम्परा में भी कुछ आयाम इसी स्तर के प्राप्त होते हैं। जैसा कि हमने ऊपर संकेत किया है, इस निबन्ध का हेतु न तो किसी मार्ग की आलोचना करना है और न किसी मार्ग की तुलना, वरन् तीनों प्रणालियों का हेतु मानव के सही स्वरूप को समझने के लिए सहायता करना है। इसी सन्दर्भ में थोड़ा सा उल्लेख हमने अस्तित्ववादी प्रयत्न और मनोविश्लेषणात्मक पद्धति के सम्बन्ध में भी किया है। जेन बुद्धिज्म के ऐतिहासिक विवेचन में न फंसकर जो कुछ उपलब्ध साहित्य है उसके तात्त्विक विवेचन O Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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