SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 907
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education International श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड गोमांस, राधा, आदि अनेक शब्दों का उल्लेख किया गया है। योग साधक मनीषियों से अपेक्षा है कि वे इन शब्दों के रहस्यों का उद्घाटन करें। इनमें से कुछ शब्द श्लेषात्मक हैं और कुछ दार्शनिक पृष्ठभूमि पर आधारित हैं । कुछ शब्दों का अर्थ सांख्य और वेदान्त से जोड़ा जाता है। किन्तु फिर भी ये शब्द विवादास्पद हैं। परन्तु हमारा विचार यह है कि इस शब्दावली को समझे बिना भी योग अभ्यास किया जा सकता है। साधना करने में यह शब्दावली कोई बाधा उपस्थित नहीं करती । योगशास्त्र में धारणा, ध्यान और समाधि को 'संयम' नाम से सम्बोधित किया गया है और बताया है कि संयम से सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। भारतीय दर्शन में सिद्धियों का वर्णन एक मोह का विषय बना हुआ है । सिद्धियाँ प्राप्त करने तथा सिद्धियाँ प्राप्त व्यक्तियों की ओर लोग दीवानों की तरह आकृष्ट होते हैं । सिद्धि आकांक्षा ने मनुष्य के एक विकृत आयाम को प्रस्तुत किया है; इसके कारण योग के सम्बन्ध में भ्रम और गलत धारणायें प्रचुर मात्रा में फैली हुई हैं। इस विवादास्पद विषय पर यहाँ हम विचार नहीं करना चाहते। परन्तु 'योगसूत्र' के अन्तर्गत, सिद्धियों के वर्णन क्रम में प्राप्त "मैत्र्यादिषुबलानि" नामक सूत्र की ओर, हम, सुधीजनों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। योगाचार्य 'मैत्री' को सिद्धि मानते हैं । सिद्धि एक बहुत बड़ा 'बल' है तथा सिद्धियाँ 'संयम' से प्राप्त होती हैं । दूसरे शब्दों में, सिद्धि प्राप्त करने के लिए मनुष्य को एक प्रकार का नियंत्रित जीवन जीने की नितान्त आवश्यकता है, जिसमें लौकिक तथा अलौकिक किसी भी तथाकथित योग्यता की आवश्यकता नहीं है। हठयोग साहित्य में 'सुराज्य' तथा 'सुधार्मिक' और योग में मैत्री, करुणा, उपेक्षा आदि शब्दों का उल्लेख भी मनुष्य जीवन के उस आयाम की ओर संकेत करता है जिसमें शान्तिमय जीवन की व्यवस्था हो। इस प्रकार की व्यवस्था में मानसिक वृत्तियों को एक दिशा प्रदान करने में अधिक सुविधा अथवा सरलता होती है। इस प्रकार का नियन्त्रित या संयमित जीवन स्वस्थ समाज की अभिवृद्धि और योग अभ्यास का पोषण करता है । परन्तु इस प्रकार का सुरक्षित वातावरण कौन निर्माण करे ? हमारी दृष्टि से, अप्रत्यक्ष रूप में यह उत्तरदायित्व योगाभ्यासी का ही है । अष्टांग योग के सम्बन्ध में एक समझ यह मानी जाती है कि योग के आठों 'सोपान' अलग-अलग हैं और एक के सिद्ध होने पर दूसरे का अभ्यास करना चाहिए । हमारी दृष्टि में यह विचार एक भ्रांति है । वास्तव में योग के आठों अंग समान्तर रूप से साथ-साथ चलते हैं। यम, नियम के साथ-साथ आसन प्राणायाम, ध्यान, धारणा आदि का अभ्यास प्रारम्भ कर देना चाहिए । यद्यपि हठयोग में आसन सिद्धि का वर्णन है परन्तु इसका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि योग अभ्यास की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को कुछ निश्चित समय तक स्थिर बैठने की क्षमता आनी चाहिए । प्राणायाम आदि के सम्बन्ध में भी इसी नियम का अवलम्बन लेना चाहिए । इसलिए योग अभ्यास की आकांक्षा होते ही पूर्ण अष्टांग योग की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है; उसके किसी एक अंग के पूर्ण होने का प्रश्न नहीं उठता । सम्भव है कि परम्परावादियों को यह विचार पसन्द न आये । परन्तु यहाँ हम 'योगसूत्र' ४/१ के उस वर्णन की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं जिसमें यह बताया गया है कि सिद्धियाँ न सिर्फ समाधि से ही प्राप्त होती हैं बल्कि कुछ लोगों को जन्म से, कुछ लोगों को मन्त्र से और कुछ लोगों को तप से भी सिद्धियाँ मिलती हैं। परम्परावादियों के अनुसार, अष्टांग योग की कठोर नियन्त्रणा से उपलब्ध 'समाधि' के द्वारा ही सिद्धियाँ मिलनी चाहिए । योग एक निश्चित दृष्टिकोण की ओर जाने वाला मार्ग है । उस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति पर, मर्यादित रूप में, कुछ नियन्त्रण लगाया जा सकता है। हमारी दृष्टि से यह नियन्त्रण जितना 'सहज' होगा साधना उतनी ही सुफलदायक होगी । सम्भवतः इसलिए ही शास्त्रों में 'अजपा जप' और 'सहज प्राणायाम' का उल्लेख किया गया है । यह इस बात का भी द्योतक है कि जीवन बहुत ही 'सहज' है और यदि उसे कृत्रिमताओं से अलग रखा जाय तो वह अत्यन्त आनन्ददायक है । अष्टांग योग की कठोर परम्परा हमें मान्य है, परन्तु इसका अर्थ साधक को मशीन या 'जीवमात्र' नहीं मान लेना चाहिए। साधक एक चैतन्य प्राणी है जो अपने मार्ग के बारे में सद्-असद् का विवेक रखता है । जीवन व्यवहार को इस मार्ग पर लगाने के बाद, यदि ध्येय स्पष्ट है तो, परम्परावादियों को, उसे थोड़ी स्वतन्त्रता देना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इस स्तर तक आने वाला साधक उच्छृंखल नहीं होगा, यह स्पष्ट है । योग की साधना मानव समाज के कृत्रिम विभेदों से अप्रभावित है। इसके प्रयोग सर्वजनीन और सर्वकालिक हैं जहाँ किसी भी अवस्था, लिंग, जाति, अथवा देश-प्रदेश का कोई बन्धन नहीं है। योग मानव मात्र की उपलब्धि है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy