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________________ २ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड मानव और मानव-समाज अन्योन्याश्रित हैं। परन्तु मानव-समाज के संगठन की प्रक्रिया इतनी जटिल हो गयी है कि उससे मानव जीवन में अनेक समस्यायें गुणात्मक रूप में विकसित होती जा रही हैं। आज के कुछ विचारक बड़ी तीव्रता से यह अनुभव करते हैं कि आधुनिक युग में समाज प्रबल होता जा रहा है और 'व्यक्ति' का अस्तित्व खोता जा रहा है ! यदि हमें व्यक्ति और समाज के सन्तुलन को बनाये रखना है तो व्यक्ति के व्यक्तित्व-विकास' की ओर अधिक ध्यान देना होगा, जिसकी अपेक्षाकृत उपेक्षा होती रही है। अष्टांग योग में व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक विकास के साथ-साथ समाज-संगठन का समन्वयात्मक दृष्टिकोण भी स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट है। व्यक्ति के शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक पहलुओं को दृष्टि में रखकर ही, अष्टांग योग में 'यम', 'नियम' आदि का प्रतिपादन किया गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के साथ-साथ शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान इन्हीं पहलुओं की ओर समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं । कुछ प्राचीन ग्रन्थों में योग-चर्चा के अन्तर्गत दी गयी कुछ विशेष शब्दावली पर, हम यहाँ विचार करना चाहते हैं । भगवद्गीता में 'युक्त आहार-विहार" का उल्लेख किया गया है । हठयोग के साहित्य में 'मिताहार' और योगी के विहार करने के स्थान पर "सुराज्य" का उल्लेख है। पतंजलि ने भी अहिंसा, शौच आदि पर सिर्फ एक-एक सूत्र लिखकर ही समाधान मान लिया है । वास्तव में इस शब्दावली को आधुनिक युग के वैज्ञानिक और गणितीय स्तर पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता । कारण स्पष्ट है, प्रत्येक व्यक्ति का आहार अत्यन्त व्यक्तिगत (निजी) रूप में होता है और इसी प्रकार निद्रा, शुचिता एवं कार्य करने की क्षमता आदि का निर्णय भी व्यक्ति स्वयं ही कर सकता है। हमारे विचार से, इन शास्त्रकारों ने अष्टांग योग के द्वारा व्यक्ति को स्वयं विचार करने के लिए प्रेरित किया है । जो व्यक्ति इस सम्बन्ध में स्वयं विचार नहीं कर सकता उसे गुरु या शास्त्र-ग्रन्थ कुछ विशेष सहायता नहीं पहुंचा सकते। व्यक्ति की अपनी निजी क्षमता के अभाव में, गुरु अथवा ग्रन्थ अत्यन्त मर्यादित रूप में ही सहायक हो सकते हैं । साधनामार्ग में साधक को अपना उत्तरदायित्व अपने आप ही समझना पड़ता है। इसलिए युक्ताहार, मिताहार, अल्पाहार, प्रजल्प, जनसंग, स्थैर्य, चित्त विश्रांति, आत्माध्यायी, दिव्य-दृष्टि, ध्रुवगति, कंठकूप इत्यादि शब्दों के सर्वजनीन अर्थ निश्चित नहीं किये जा सकते । इनके अर्थ साधना-मार्ग के व्यक्ति-स्वातंत्र्य पर निर्भर हैं। यदि शरीर या मन में विकार या व्याधियाँ आती हैं तो उसका कारण गुरु या समाज नहीं है, इस सम्बन्ध में साधक को स्वयं विचार करना चाहिए । आध्यात्मिक-साधना के मार्ग-दर्शन में शब्द के ठीक-ठीक अर्थ समझना-समझाना एक कठिन समस्या है, जिसे सार्वजनिक रूप से सुलझाना दुष्कर कार्य है। अष्टांग योग की प्रक्रिया में आसन और प्राणायाम का भी महत्वपूर्ण स्थान है। आज सारी दुनियाँ में आसनप्राणायाम का प्रचार 'फैशन' बन गया है। शारीरिक-शिक्षण के क्षेत्र में भी योग-आसनों का समावेशन किया जा रहा है। 'यौगिक-व्यायाम' नाम से ग्रन्थ भी प्रकाशित हो रहे हैं। रोग-निवारण के लिए भी आसन-प्राणायाम का प्रचार-प्रसार हो रहा है । 'योग चिकित्सा पद्धति' अब सरकारी मान्यता प्राप्त कर रही है। इस सम्बन्ध में भी साहित्य लिखा जा रहा है । परन्तु हमारे विचार से ये सारे प्रयास अधूरे और भ्रामक हैं । आसन-प्राणायाम के इस प्रकार के प्रचार-प्रसार से अधिकांश लोगों ने यह समझ लिया है कि आसन-प्राणायाम ही 'योग' है। वस्तुतः आसन-प्राणायाम को ही 'योग' समझ लेना एक बड़ी भ्रान्ति है । शारीरिक-शिक्षण और रोग-निवारण के लिए इनका प्रयोग करना कोई बुरी बात नहीं; परन्तु यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि आसन-प्राणायाम 'व्यायाम' मात्र नहीं है। इनके संयोजन का उद्देश्य, 'शरीर' तक ही सीमित नहीं, बल्कि इनका उद्देश्य, एक ओर मनुष्य की सामाजिक पवित्रता बनाये रखना है तो दूसरी ओर व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति के लिए आधार तैयार करना है। परन्तु ये उद्देश्य तभी साध्य हो सकते हैं जब आसनप्राणायाम का अभ्यास, यम-नियम के पालन करते हुए किया जायेगा। आसन-प्राणायाम का उद्देश्य भौतिक भोगविलास की अभिवृद्धि करना नहीं है। दुर्भाग्य से अधिकांश लोग इन्द्रिय-भोग विलास के लिए ही आसन-प्राणायाम का अभ्यास करते हैं । इससे उनका व्यक्तिगत उद्देश्य कितना साध्य होता है, यह तो वही समझें, किन्तु इसके द्वारा 'योग' के नाम पर 'सामाजिक-शोषण' का एक और आयाम विकसित हो रहा है। साथ ही 'योग' जैसी सर्वांगपूर्ण जीवन पद्धति की छीछलेदार होती है, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। आसन और प्राणायाम के प्रभाव के सम्बन्ध में प्राचीन साहित्य के अन्तर्गत कुछ विशेष संकेत प्राप्त होते हैं । जैसे भूख और प्यास पर नियन्त्रण होना; दिव्य दृष्टि प्राप्त करना; निद्रा-आलस्य और वात-पित्त, कफ आदि दोषों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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