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________________ १४६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड OM Gane हुआ था। उस पर गादी-तकिये बिछाये हुए थे तथा इत्र और पुष्पों को मधुर सौरभ से मकान सुवासित था। रात्रि में कोई भी बहिन महासती के दर्शन के लिए वहाँ उपस्थित नहीं हुई। महासतीजी को पता लग गया कि इस मकान में अवश्य ही भूत और प्रेत का कोई उपद्रव है । महासती लाभकुंवरजी ने सभी शिष्याओं को आदेश दिया कि सभी आकर मेरे पास बैठे। आज रात्रि भर हम अखण्ड नवकार मंत्र का जाप करेंगी। जाप चलने लगा। एक साध्वीजी को जरा नींद आने लगीं। ज्यों ही वे सोईं त्यों ही प्रेतात्मा उस महासती की छाती पर सवार हो गयी जिससे वह चिल्लाने लगी। महासती लाभकुंवरजी ने आगे बढ़कर उस प्रेत को ललकारा कि तुझे महासतियों को परेशान करते हुए लज्जा नहीं आती । हमने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है। महासती की गंभीर गर्जना को सुनकर प्रेतात्मा एक ओर हो गया । महासती लाभकुंवरजी ने सभी साध्वियों से कहा जब तक तुम जागती रहोगी तब तक प्रेतात्मा का किंचित् भी जोर न चलेगा। जागते समय जप चलता रहा । किन्तु लंबा विहार कर आने के कारण महासतियाँ थकी हुई थीं। अत: उन्हें नींद सताने लगी। ज्योंही दूसरी महासती नींद लेने लगी त्यों ही प्रेतात्मा उन्हें घसीट कर एक ओर ले चला। गहरा अंधेरा था महासती लाभकुंवरजी ने ज्यों ही अन्धेरे में देखा कि प्रेतात्मा उनकी साध्वी को घसीट कर ले जा रहा है, नवकार मंत्र का जाप करती हुईं वे वहाँ पहुँची और प्रेतात्मा के चंगुल से साध्वी को छुड़ाकर पुनः अपने स्थान पर लायीं और रात भर जाप करती हुई पहरा देती रहीं। प्रातः होने पर उनके तप:तेज से प्रभावित होकर महासतीजी से क्षमा मांगकर प्रेतात्मा वहाँ से चला गया। महासतीजी ने श्रावकों को उपालंभ देते हुए कहा-इस प्रकार भयप्रद स्थान में साध्वियों को नहीं ठहराना चाहिए । श्रावकों ने कहा-हमने सोचा कि हमारी गुरुणीजी बड़ी ही चमत्कारी हैं, इसलिए इस मकान का सदा के लिए संकट मिट जायगा अत: उस श्रावक की प्रार्थना करने पर मौन रहे, अब क्षमाप्रार्थी हैं। महासतीजी ने कहा—संकट तो मिट गया पर हमें कितनी परेशानी हुई। इस प्रकार महासतीजी के जीवन में अनेकों घटनाएँ घटीं किन्तु उनके ब्रह्मचर्य के तेज व जप-साधना के कारण सभी उपद्रव शांत रहे। महासती श्री लाभकुंवरजी की अनेक शिष्याओं में एक शिष्या महासती छोटे आनन्द कुंवरजी थीं । आपकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के कमोल ग्राम में थी। ये बहुत ही मधुरभाषिणी थीं। उनके जीवन में त्याग की प्रधानता थी । इसलिए उनके प्रवचनों का असर जनता के अन्तर्मानस पर सीधा होता था । आप जहाँ भी पधारी वहाँ आपके प्रवचनों से जनता मंत्रमुग्ध होती रही। आपकी अनेक शिष्यायें हुईं। उनमें महासती मोहनकुंवरजी महाराज और लहरकुंवरजी महाराज इन दो शिष्याओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । महासती मोहनकुंवरजी का जन्म उदयपुर राज्य के भूताला ग्राम में हुआ। उनका गृहस्थाश्रम का नाम मोहनबाई था। जाति से आप ब्राह्मण थीं। नौ वर्ष की लघुवय में उनका पाणिग्रहण हो गया। वह पति के साथ एक बार तीर्थयात्रा के लिए गुजरात आयीं। भडोच के सन्निकट नरमदा में स्नान कर रही थीं कि नदी में तीन पानी का एक प्रवाह आ गया जिससे अनेक व्यक्ति जो किनारे पर स्नान कर रहे थे पानी में बह गये । मोहनबाई का पति भी बह गया जिससे ये विधवा हो गयीं। उस समय महासती आनन्दकुँवरजी विहार करती हुई भूताले पहुंचीं। उनके उपदेश से प्रभावित हुई। मन में वैराग्य-भावना लहराने लगी। किन्तु उनके चाचा मोतीलाल ने अनेक प्रयास किये कि उनका वैराग्य रंग फीका पड़ जाय । अनेक बार उन्हें थाने के अन्दर कोठरी में बन्द कर दिया, पर वे सभी परीक्षाओं में समुत्तीर्ण हुई। अन्त में मोतीलालजी उन्हें महाराणा फतहसिंह के पास ले गये। महाराणाजी ने भी उनकी परीक्षा ली। किन्तु उनकी दृढ़ वैराग्य-भावना देखकर दीक्षा की अनुमति प्रदान कर दी जिससे सोलह वर्ष की उम्र में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। खूब मन लगाकर अध्ययन किया। आपकी दीक्षा के सोलह वर्ष के पश्चात् आपका वर्षावास अपनी सद्गुरुणी के साथ उदयपुर में था। आश्विन शुक्ला पूर्णिमा की रात्रि में वे सोयी हुई थीं। उन्होंने देखा एक दिव्य रूप सामने खड़ा है और वह आवाज दे रहा है कि जाग रही हैं या सो रही हैं ? तत्क्षण वे उठकर बैठ गयीं और पूछा -आप कौन हैं ? और क्यों आये हैं ? देव ने कहा-यह न पूछो, देखो तुम्हारा अन्तिम समय आ चुका है । कार्तिक सुदी प्रतिपदा के दिन नौ बजे तुम अपनी नश्वर देह का परित्याग कर दोगी, अतः संथारा आदि कर अपने जीवन का उद्धार कर सकती हो। यह कहकर देव अन्तर्धान हो गया। महासती आनन्दकुंवर जी जो सन्निकट ही सोयी हुई थीं, उन्होंने सुना और पूछा किससे बात कर रही हो? उन्होंने महासती से निवेदन किया कि मेरा अन्तिम समय आ चुका है, इसलिए मुझे संथारा करा दें। महासतीजी ने कहा-अभी तेरी बत्तीस वर्ष की उम्र है, शरीर में किसी भी प्रकार व्याधि नहीं है, अत: मैं संथारा नहीं करा सकती। उस समय उदयपुर में आचार्य श्रीलालजी महाराज का भी वर्षावास था; उन्होंने भी अपने शिष्यों को भेजकर महासती से संथारा न कराने का आग्रह किया और महाराणा फतहसिंहजी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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