SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 884
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शासन प्रभाविका अमर साधिकाएँ १४३ निवासिनी थीं। (२) महासती प्रतापकुंवरजी। यह भी उदयपुर राज्य के वीरपुरा ग्राम की थीं। (३) महासती पाटूजी-ये समदड़ी (राजस्थान) की थीं। इनके पति का नाम गोडाजी लुंकड था। वि० सं० १९७८ में इनकी दीक्षा हुई । (४) महासती चौथाजी-इनकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के बंबोरा ग्राम में थी और इनकी ससुराल वाटी ग्राम में थी, (५) महासती एजाजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के शिशोदे ग्राम में हुआ, आपके पिता का नाम भेरूलालजी और माता का नाम कत्थूबाई था। आपका पाणिग्रहण वारी (मेवाड़) में हुआ और वहीं पर महासतीजी के उपदेश से प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण की। वर्तमान में इनमें से चार साध्वियों का स्वर्गवास हो चुका है केवल महासती एजाजी इस समय विद्यमान हैं। उनकी कोई शिष्याएँ नहीं है। इस प्रकार यह परम्परा यहाँ तक रही है। महासती श्री नवलाजी की द्वितीय शिष्या गुमानाजी थीं। उनकी शिष्या-परम्पराओं में बड़े आनन्दकुंवरजी एक विदुषी महासती हुई। वे बहुत ही प्रभावशाली थीं। उनकी सुशिष्याएँ अनेक हुईं, पर उन सभी के नाम मुझे उपलब्ध नहीं हुए। उनकी प्रधान शिष्या महासती श्री बालब्रह्मचारिणी अभयकुँवरजी हुई। आपका जन्म वि० सं० १६५२ फाल्गुन वदी १२ मंगलवार को राजवी के बाटेला गाँव (मेवाड़) में हुआ। आपने अपनी मातेश्वरी श्री हेमकुंवरजी के साथ महासती आनन्दकंवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर वि० सं० १९६० मृगशिर सुदी १३ को पाली-मारवाड़ में दीक्षा ग्रहण की । आपको शास्त्रों का गहरा अभ्यास था। आपका प्रवचन श्रोताओं के दिल को आकर्षित करने वाला होता था। जीवन की सान्ध्यबेला में नेत्र-ज्योति चली जाने से आप भीम (मेवाड़) में स्थिरवास रहीं और वि० सं० २०३३ के माघ में आपश्री का संथारा सहित स्वर्गवास हुआ। आपश्री की दो शिष्याएँ हुई-महासती बदामकुंवरजी तथा महासती जसकुंवरजी। महासती बदामकुंवरजी का जन्म वि० सं० १९६१ वसन्त पंचमी को भीम गांव में हुआ । आपका पाणिग्रहण भी वहीं हुआ और वि० संवत् १९७८ में विदुषी महासती अभयकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आप सेवाभावी महासती थीं। सं० २०३३ में आपका भीम में स्वर्गवास हुआ। महासती श्री जसकुंवरजी का जन्म १९५३ में पदराडा ग्राम में हुआ। आपने महासती श्री आनन्दकुंवरजी के पास सं० १९८५ में कम्बोल ग्राम में दीक्षा ग्रहण की और महासती श्री अभयकुंवरजी की सेवा में रहने से वे उन्हें अपनी गुरुणी की तरह पूजनीय मानती थीं। आप में सेवा की भावना अत्यधिक थी। सं० २०३३ में भीम में स्वर्गवास हुआ। इस प्रकार यह परम्परा यहाँ तक चली। महासती श्री नवलाजी की तृतीय शिष्या केसरकुंवरजी थीं। उनकी सुशिष्या छगनकुंवरजी हुई। महासती छगनकुंवरजी-आप कुशलगढ़ के सन्निकट केलवाड़े ग्राम की निवासी थीं। लघुवय में ही आपका पाणिग्रहण हो गया था । किन्तु कुछ समय के पश्चात् पति का देहान्त हो जाने से आपके अन्तर्मानस में धार्मिक साधना के प्रति विशेष रुचि जागृत हुई। आपका ससुर पक्ष मूर्तिपूजक आम्नाय के प्रति विशिष्ट रूप से आकर्षित था। आप तीर्थयात्रा की दृष्टि से उदयपुर आयीं। कुछ बहिनें प्रवचन सुनने हेतु महासती गुलाबकुंवरजी के पास जा रही थीं। आपने उनसे पूछा कि कहाँ जा रही हैं। उन्होंने बताया कि हम महासतीजी के प्रवचन सुनने जा रही हैं। उनके साथ आप भी प्रवचन सुनने हेतु पहुंचीं । महासतीजी के वैराग्यपूर्ण प्रवचन को सुनकर अन्तर्मानस में तीव्र वैराग्य भावना जाग्रत हुई। आपने महासतीजी से निवेदन किया कि मेरी भावना त्याग-मार्ग को ग्रहण करने की है। महासतीजी ने कहाकुछ समय तक धार्मिक अध्ययन कर, फिर अन्तिम निर्णय लेना अधिक उपयुक्त रहेगा। बुद्धि तीक्ष्ण थी। अतः कुछ ही दिनों में काफी थोकड़े, बोल, प्रतिक्रमण व आगमों को कण्ठस्थ कर लिया। परिवार वालों ने आपकी उत्कृष्ट भावना देखकर दीक्षा की अनुमति प्रदान की। आप अपने साथ तीर्थयात्रा करने हेतु विराट् सम्पत्ति भी लायी थीं। परिवार वालों ने कहा-हम इस सम्पत्ति को नहीं लेंगे, अतः उस सारी सम्पत्ति का उन्होंने दान कर दिया। आपका प्रवचन बहुत ही मधुर होता था। आपकी अनेक शिष्याएँ थीं। उनमें महासती फूलकुंवरजी मुख्य थीं। वि० सं० १९६५ में संथारे के साथ आपका उदयपुर में स्वर्गवास हुआ। महासती ज्ञानकुंवरजी-महासती छगनकुंबरजी की एक शिष्या विदुषी महासती ज्ञानकुंवरजी थीं । आपका जन्म वि० सं० १६०५ में उम्मड ग्राम में हुआ और बम्बोरा के शिवलालजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ था । सं० १९४० में आपके एक पुत्र हुआ जिसका नाम हजारीमल रखा गया। आचार्यप्रवर पूज्यश्री पूनमचन्दजी महाराज तथा महासती छगनकुंवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर आपने १६५० में महासती श्रीछगनकुंवरजी के पास जालोट में दीक्षा ग्रहण की। आपके पुत्र ने ज्येष्ठ शुक्ला १३ रविवार के दिन समदड़ी में दीक्षा ग्रहण की । उनका नाम ताराचन्दजी महाराज रखा गया। वे ही आगे चलकर उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के गुरु बने। महासती ज्ञानकुंवरजी महाराज बहुत ही सेवाभावी तथा तपोनिष्ठा साध्वी थीं। महासती श्री गुलाबकुँवरजी के उदयपुर स्थानापन्न विराजने पर आपश्री ने वहाँ पर वर्षों तक रहकर सेवा की और वि० सं० १९८७ में उदयपुर में संथारा सहित उनका स्वर्गवास हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy