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________________ १३२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : अष्टम खण्ड Hinmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm लगा जिससे वे विचलित हो गये। जिस गुरुदेव की शीतल छाया में जीवन का यह नवीन पौधा संरक्षण व संवर्द्धन पा रहा था, अकस्मात् क्रूर काल की आँधी के एक ही वेग से वह शीतल छाया ध्वस्त हो गयी। इस स्थिति में बालक मुनि अपने को असहाय व आश्रयहीन अनुभव करने लगा। उस समय ज्येष्ठमलजी महाराज व नेमीचन्दजी महाराज ने मधुर स्नेह से उन्हें स्वस्थ किया । वे पुनः शान्त और स्थिरचित्त होकर संयम-साधना में लीन हो गये। वर्षावास के पश्चात् जालोर से विहार हुआ। श्रमण ऋषियों के लिए विहार करना प्रशस्त माना गया है'विहार चरिया इसिणंपसत्था' । सरिता की सरस धारा के समान श्रमणों की विहार यात्रा है । जैसी सरिता के सन्निकट की भूमि उर्वरा होती है वैसे ही सन्तों के सत्संग से जन-जीवन में सत्संस्कार, सद्विचार तथा सदाचार पनपने लगते हैं और स्नेह सद्भावना की सरस भावनाएँ अठखेलियां करने लगती हैं । एक कवि ने कहा भी है "साधु, सलिला, बादली, चले भुजंगी चाल । जिण-जिण सेरी नोसरे, तिण-तिण करत निहाल ॥" बालक मुनि श्री ताराचन्दजी अपने गुरुभ्राता कविवर्य श्री नेमीचन्दजी महाराज के साथ मेवाड़ पधारे और मातेश्वरी ज्ञानकुंवरजी से मिले। मां ने अपनी वाणी में स्नेह सुधा घोलते हुए कहा-वत्स ! मैं जानती हूँ कि गुरुदेव श्री का एकाएक स्वर्गवास हो गया है। तुम्हें साधना के क्षेत्र में अब अधिक जागरूकता से आगे बढ़ना है। दूध को गरम करते समय उफान आता है किन्तु समझदार रसोइया जल के छींटे डालकर उस उफान को शान्त कर देता है। जो व्यक्ति समुद्र की यात्रा करता है उसे तूफान का सामना करना पड़ता है । कुशल नाविक तूफानी वातावरण में भी नौका को खेता हुआ पार पहुंचा देता है । तो तुम्हें उफान और तूफान में शान्त रहना है। उफान जीवन में अनेक बार आते हैं । यदि साधक जागरूक न रहे तो उफान भी तूफान बन जाता है । अतः सतत जागरूकता की आवश्यकता है। वत्स ! अभी तेरी उम्र छोटी है । यह उम्र अध्ययन करने की है। अध्ययन से बुद्धि मँजती है । विचारों में निखार व प्रौढ़ता आती है। अध्ययन के साथ ही विनय और विवेक भी आवश्यक हैं। नगीना स्वर्ण में जड़ने से ही शोभा पाता है। वैसे ही विनय के साथ विवेक की भी शोभा होती है। विनय से जीवन में हजारों सद्गुण आते हैं। विनय वह चुम्बक है जो सद्गुणों को अपनी ओर आकर्षित करता है। साथ ही चाहे तुमसे बड़े हों चाहे छोटे हो उन सभी की, तन, मन, से सेवा करना । सेवा से तेरे जीवन में नयी चमक और दमक आयेगी। देख बेटा, "चाम नहीं, काम वाल्हो है।" मेरी इन शिक्षाओं पर तू सदा ध्यान रखना । दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् तू पहली बार मुझसे मिला है । अतः मैंने अपने हृदय की बात तुझे कही है। इसे जीवन भर न भूलना। माँ की शिक्षाभरी बातों को सुनकर बालकमुनि ताराचन्दजी ने कहा-माँ ! तू चिन्ता मत कर । मैं तेरे दूध को रोशन करूँगा। मैं ऐसा कोई भी कार्य नहीं करूँगा जिससे तुझे उपालंभ सुनना पड़े। माँ पुत्र के तेजस्वी और ओजस्वी चेहरे को देखकर प्रफुल्लित थी। उसे आत्मविश्वास था कि मेरा लाल साधना के महामार्ग में सदा आगे ही बढ़ता रहेगा। आपश्री ने विक्रम संवत् १९५३ का वर्षावास रंडेडा में किया और वर्षावास के पश्चात् अपनी जन्मस्थली बम्बोरा पधारे । उस समय वहाँ पर पूज्यश्री तेजसिंह जी महाराज की सम्प्रदाय के बड़े प्यारचन्दजी महाराज से आपका मिलना हुआ । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि आपश्री इसके पश्चात् पुनः अपनी जन्मभूमि में संवत् २००३ में पधारे, अर्थात् पचास वर्ष के बाद । आपश्री का स्वभाव बहुत मधुर था। आपकी वाणी में मिश्री के समान मिठास था। सेवा और विनय के कारण आपश्री सन्तों के अत्यधिक प्रिय हो गये। आपकी प्रतिभा से सन्त प्रभावित थे। आपश्री ने छह चातुर्मास कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज के साथ किये और दूज के चाँद की तरह आपका प्रेम निरन्तर बढ़ता ही रहा। रतलाम में श्री उदयसागरजी महाराज ने अपको देखकर नेमीचन्दजी महाराज से कहा-इसके शुभ लक्षण बताते हैं कि यह महान प्रभावशाली सन्त होगा और यह देश-विदेशों में भी लम्बी यात्राएँ करेगा । विक्रम संवत् १६५६ में आपश्री आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी महाराज की सेवा में पधार गये और वे जब तक जीवित रहे तब तक आपश्री उन्हीं की सेवा में रहे। आपश्री की सेवा से ज्येष्ठमलजी महाराज अत्यधिक प्रभावित हुए। आपने ज्येष्ठमलजी महाराज के सुशिष्य तपस्वी हिन्दूमलजी महाराज जो गढ़सिवाना के थे, जिन्होंने भरे-पूरे परिवार का परित्याग कर आहती दीक्षा ग्रहण की थी, और दीक्षा ग्रहण करते ही जिन्होंने पाँचों विगायों का परित्याग कर दिया था एवं उग्र तप की साधना करते थे। एक बार वे सिवाना के सन्निकट अजियाना गाँव में थे। उस समय परस्पर कुसे लड़ रहे थे। उनकी झपट में आ जाने से तपस्वी हिन्दूमलजी महाराज नीचे गिर गये और उनके पैर की हड्डी टूट गयी, जिससे वे चल नहीं सकते थे। आप उन्हें अपने कन्धे पर बिठाकर उपचार हेतु छह मील चलकर गढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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