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________________ ११४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड दाल चिणों को तेह में बाधत है कछु घाट । शंका हो तो देख लो, हाथी एक सौ आट ॥ ४ ॥ जीव जतन निर्मल चित्ते, किधौ जीव उद्धार । एक कर्म भय आदि को, मेटे यह उपगार ॥ ५॥ आचार्यश्री ने एक काँच के टुकड़े को विशेष औषध लगाकर तैयार किया था जो आइ-ग्लास की तरह था, उसे राजा मानसिंह को देते हुए कहा-आप इसकी सहायता से देखिए, इसमें क्या चित्र है ? राजा ने ज्यों ही देखा उनके आश्चर्य का पार न रहा। उस लघु स्थान में हाथी चित्रित थे, जिस पर लाल झूलें थीं। जब राजा ने गिना तो वे १०८ की संख्या में थे । आचार्यश्री ने कहा पशुओं में सबसे बड़ा हाथी है, और उसे मैंने चित्रित किया है। वे भी आपकी आँखों से नहीं दिखायी दिये तो जल की बूंद में असंख्यात जीव आपको किस प्रकार दिखायी दे सकते हैं ? राजा मानसिंह के पास उसका कोई उत्तर नहीं था। वह श्रद्धा से नत था। इसके हृतन्त्र के तार झनझना उठे कि वस्तुत: जैन श्रमण महान् हैं। जैन आगमों में कोई मिथ्या कल्पना नहीं है । जैन श्रमणाचार्य के प्रति वे अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने कहा काहू को आश राखे, काहू से न दीन भाखे, करत प्रणाम ताको, राजा राणा जेबड़ा। सीधी सी आरोगे रोटी, बैठा बात करे मोटी, ओढ़ने को देखो जांके, धोला सा पछेवड़ा। खमा खमा करें लोक, कदियन राखें शोक, बाजे न मृदंग चंग, जग माहि जे बड़ा। कहे राजा मानसिंह, दिल में विचार देखो, दुःखी तो सकल जन, सुखी जैन खेवड़ा। आचार्यश्री को नमस्कार कर श्रद्धा के साथ राजा मानसिंह बिदा हुए। आचार्यश्री के सत्संग से राजा मानसिंह के जीवन में परिवर्तन हो गया और वे अब जैन श्रमणों का सम्मान करने लगे। जैन साहित्य के प्रति भी उनके मन में आस्था अंकुरित हो गयी। आचार्य जीतमल जी महाराज ने प्रज्ञापना सूत्र के वनस्पति पद का सचित्र लेखन किया। जिन वनस्पतियों का उल्लेख टीकाकार ने वनस्पति-विशेष में किया उन वनस्पतियों के चित्र आपश्री ने बनाये और वे वनस्पतियाँ किन-किन रोगों में किस रूप में काम आती हैं और वनस्पतियों के परस्पर संयोग होने पर किस प्रकार सुवर्ण आदि निर्मित होते हैं आदि पर भी प्रकाश डाला। अंगस्फुरण, पुरुष का कौन-सा शुभ है या कौन-सा अशुभ है, हाथ की रेखाएँ और उनमें कौन-से लक्षण अपेक्षित होते हैं, विजयपताका यन्त्र, ह्रींकार यन्त्र, सर्वतो भद्र यन्त्र तथा मन्त्र साहित्य, तन्त्र साहित्य पर आपने बहुत लिखा था। आपने सूक्ष्माक्षर में एक पन्ने पर दशवैकालिकसूत्र, वीर स्तुति (पुच्छिसुणं) और नमि पवज्जा का लेखन किया था। राजस्थान, मध्यप्रदेश में आपका मुख्य रूप से विचरण रहा और आपने जैन धर्म की विजय-वैजयन्ती फहरायी। आपने अठत्तर वर्ष तक शुद्ध संयम का पालन किया । जीवन की सान्ध्य वेला में आपश्री कुछ दिनों तक जोधपुर विराजे । जैन साधना में समाधि मरण का वरण करने वाला व्यक्ति धन्य माना जाता है। संयम की आराधना करते हुए परम आह्लाद के साथ जो मृत्यु का वरण करता है वह जागृत मृत्यु है । जिनमें भेद-विज्ञान होता है, आत्मा और शरीर की भिन्नता का जिसे बोध हो जाता है, वह देह के प्रति आसक्त नहीं होता और न वह मृत्यु से ही भयभीत होता है । किन्तु वह तो मृत्यु को सहर्ष स्वीकार करता है। आचार्य प्रवर ने चतुर्विध संघ से क्षमायाचना की और सन्थारा ग्रहण किया । एक मास तक सन्थारा चलता रहा। दिन-प्रतिदिन आपके परिणाम उज्ज्वल और उज्ज्वलतर होते गये। उस समय आपके सन्निकट योग्यतम शिष्य का अभाव था। आपने अपने एक शिष्य से गरम पानी मंगवाया और जो अत्यन्त श्रम से प्रज्ञापना सूत्र का वनस्पति पद सचित्र तैयार किया था उसका कहीं दुरुपयोग न हो जाय, अतः आपने उसे पानी में डालकर नष्ट कर दिया। उस समय जोधपुर के प्रसिद्ध श्रावक वैदनाथ जी ने आपश्री से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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