SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 849
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड समत अठार वर्ष गुणचासे, महावद आठम भारी जी। शहर जोधाणे जोडी जुगत सु, थे सुण जो सहु नर नारी जी ॥ आचार्यश्री सुजानमल जी महाराज के गुणों पर प्रकाश डालते हुए भी अन्त में उन्होंने लिखा है म्हारा गुरां रा गुण कहूं किस्या, म्हारा दिल में तो म्हारा गुरु जी बस्या । जोडी जुगति सु ढाल हरसोर ग्रामी, मनें वल्लभ लागे सुजाण जी स्वामी ॥ संमत अठारे वर्ष पचासे, पूज जीतमल तो इम भाषे । वद फागुण शुक्र तिथ छट्ठ पामी ॥ मनें वल्लभ लागे........ आचार्यश्री जीतमल जी महाराज के द्वारा लिखित रचनाएँ मुझे जितनी भी उपलब्ध हो सकी हैं वे सारी रचनाएँ मैंने 'अणविन्ध्या-मोती' के नाम से संग्रह की हैं जो अभी तक अप्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त भी आपकी अनेक रचनाएँ थीं और उनकी संख्या पचास-साठ ग्रन्थों की थी। ऐसा मुझे एक प्राचीन पत्र में उल्लेख मिला है। किन्तु वे सारी रचनाएँ आज मिलती नहीं हैं। आपश्री कुशल चित्रकार भी थे। आपने संग्रहणी अढाई-द्वीप का नक्शा, त्रसनाडी का नक्शा, केशी-गौतम की चर्चा, परदेशी राजा के स्वर्ग का मनोहारी दृश्य, द्वारिका दृश्य, भगवान अरिष्टनेमी की बरात, स्वर्ग और नरक आदि विविध विषयों पर लगभग दो हजार चित्र आपने बनाये हैं। सूर्य पल्ली आपकी बहुत ही उत्कृष्ट कलाकृति है जिसे देखकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मुग्ध हो गये थे । आपने सूई की नोंक से काटकर कटिंग की है, वह कटिंग अत्यन्त चित्ताकर्षक है। साथ ही आपने कटिंगों में श्लोक आदि भी लिखे हैं । आपका एक कटिंग तो बड़ा ही अद्भुत और अनूठा है। उसमें आपने इस प्रकार अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है कि एक पन्ना होने पर भी आगे और पीछे पृथक्-पृथक् श्लोक पढ़े जाते हैं। भारत के मूर्धन्य मनीषी इसे विश्व का एक महान आश्चर्य मानते हैं। एक बार आपश्री अपने शिष्यों के साथ संवत १८७१ में जोधपुर विराज रहे थे। उस समय आपके प्रवचनों की अत्यधिक धूम थी। जैन-अजैन सभी आपके प्रवचनों में उपस्थित होते थे और प्रवचनों को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। कुछ ईर्ष्यालु विपक्षियों को आचार्यश्री का बढ़ता हुआ तेज सहन नहीं हुआ' उन्होंने आचार्यश्री से कहा-आप कहते हैं कि पानी की एक बूंद में असंख्य जीव होते हैं, कृपया हमें प्रत्यक्ष बतायें। आचार्यश्री ने विविध युक्तियाँ देकर उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु वे कहाँ समझने वाले थे ? उनके अन्तर्मानस में तो ईर्ष्याग्नि जल रही थी। वे आचार्य श्री का अपमान करने हेतु तत्पर थे। उन्होंने उस समय जोधपुर के नरेश मानसिंह के पास जाकर निवेदन किया कि हुजूर, आपके राज्य में जैन-साधु मिथ्या प्रचार करते हैं । वे कहते हैं कि जल की एक बूंद में असंख्य जीव हैं । आप जरा उन्हें पूछे तो सही कि कुछ जीव निकालकर हमें बतावें। इसप्रकार मिथ्या प्रचार कर जन-मानस को गुमराह करना कितना अनुचित है । आपश्री को चाहिए कि उस पर प्रतिबन्ध लगाया जाय । राजा मानसिंह एक प्रतिभा सम्पन्न राजा थे। वे कवि थे, विचारक थे। उन्होंने महाराजश्री के पास सन्देश भिजवाया। महाराजश्री ने उत्तर में कहा--जिन्हें जिज्ञासा है वे स्वयं आकर जिज्ञासाओं का समाधान कर सकते हैं। जिज्ञासु राजा आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् आचार्यश्री से पूछा-- ___ आचार्य-प्रवर, जैन आगमों में हजारों बातें ऐसी हैं जो बुद्धिगम्य नहीं हैं और पागलों के प्रलाप-सी प्रतीत होती हैं । यही कारण है बनियों के अतिरिक्त जैन धर्म को कोई नहीं मानता। आचार्यश्री ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा-राजन्, ! आपका यह मानना भ्रांतिपूर्ण है। स्वयं भगवान महावीर क्षत्रिय थे । वे सम्राट-सिद्धार्थ के पुत्र थे। उनके नाना चेटक गणतन्त्र के अधिपति थे। उनके शिष्य उस युग के जाने-माने हुए विद्वान् थे और शास्त्रार्थ करने में निपुण थे। भगवान महावीर के अनेक राजागण उपासक थे। आठ राजाओं ने महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर जैन धर्म की प्रभावना की और अनेक राजकुमारों ने, महारानियों ने भी संयम स्वीकार किया था और सम्राट श्रेणिक जैसे अनेक राजागण भी महावीर के परम भक्त थे। उसके पश्चात् भी सम्राट चन्द्रगुप्त ने आहती दीक्षा ग्रहण की । कुमारपाल जैसे प्रभावी राजा भी जैन धर्म के दिव्य प्रभाव से प्रभावित थे। अतः आपका यह कहना कि जैन धर्म बनियों का धर्म है यह उचित नहीं है। आचार्य भद्रबाहु, संमतभद्र, उमास्वाती सिद्धसेन दिवाकर, हेमचन्द्र, अभयदेव, हरिभद्र, यशोविजय आदि अनेकों ज्योतिर्धर आचार्य हुए हैं जिन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy