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________________ HMMM....mmmmmmmmmHMramme ++ ++. ... .. हमारे ज्योतिर्धर आचार्य -देवेन्द्रमुनि, शास्त्री आचार्यश्री तुलसीदासजी महाराज ___ इस विराट विश्व में हजारों प्राणी प्रतिदिन जन्म लेते हैं और प्रतिदिन मरते हैं, किन्तु उन्हें कोई भी याद नहीं करता। जिनका जीवन आत्महित के साथ जगतहित के लिए समर्पित होता है, आत्मविकास के साथ जन-जीवन के लिए क्रियाशील होता है, वह जीवन विश्व में सार्थक जीवन गिना जाता है। जिन्दगी का अर्थ है विश्व की अन्धकाराच्छन्न काल-रात्रि में सुख, सद्भाव और स्नेह का आलोक फैलाना। सन्त अपने लिए ही नहीं विश्व के लिए जीता है। भगवान पार्श्वनाथ के चरित्रकार ने भगवान पार्श्व की परम कारुणिक भावना का चित्रण करते हुए लिखा है-ये साधुजन स्वभाव से ही परहित करने में सदा तत्पर रहते हैं। चन्दन की तरह अपना शरीर छिलाकर सुगन्ध फैलाते हैं, अगरबत्ती की तरह जलकर वातावरण को मधुर सौरभ से महकाते हैं, मोमबत्ती की तरह अपनी देह को नष्ट कर अन्धकार से अन्तिम क्षण तक संघर्ष करते रहते हैं, अपने परिश्रम की बूंदों से मिट्टी को सींचकर कल्पवृक्ष उत्पन्न करते हैं। वे जीते-जागते कल्पवृक्ष हैं। जिनदासगणी महत्तर ने श्रमण-जीवन की महिमा उत्कीर्तन करते हुए लिखा हैसन्तजन विविध जाति और कुलों में उत्पन्न हुए, पृथ्वी के चलते-फिरते कल्पवृक्ष हैं। वह कल्पवृक्ष भौतिक कामनाएँ पूर्ण करता है तो यह कल्पवृक्ष आध्यात्मिक वैभव की वृद्धि करता है । श्रीमद् भागवत' में कर्मयोगी श्रीकृष्ण कहते हैं-- सन्तजन ही सबसे बड़े देवता हैं। वे ही समस्त जगत् के बन्धु हैं, वे जगत् के आत्मा हैं, और सत्य-तथ्य तो यही है मेरे में (भगवान में) और सन्त में कोई अन्तर नहीं है। गुरु अर्जुनदेव ने लिखा है-सन्त धर्म की जीती-जागती मूर्ति हैं, तप और तेज के प्रज्वलित पिण्ड हैं और करुणा के अन्तःस्रोत हैं। सन्त-जीवन के परमानन्द का मूल स्रोत है समता । जब तक मन में राग-द्वेष के विकल्प और संकल्प उबुद्ध होते रहते हैं, कषाय की लहरें तंरगित होती रहती हैं, मन अशान्ति की आग में झुलसता रहता है। सन्त समता के शीतल जल से कषायों की आग को शान्त करता है। बह क्रोध नहीं करता, किन्तु सदा प्रसन्न रहता है। वह चन्द्र के समान सौम्य,' और विराट सागर के समान गहन-गम्भीर होता है। यदि उस पर विरोधी असज्जन तेज कुल्हाड़ी का प्रहार करता है या भक्त सज्जन शीतल चन्दन का लेप करता है तो वह दोनों स्थितियों में सम रहता है चाहे बसौले की मार हो या चन्दन का उपहार हो, मधुर मिष्ठान्न की मनुहार हो या घृणा-तिरस्कार की दुत्कार हो उसके अन्तमानस पर कोई असर नहीं होता । वह द्वन्द्वातीत और विकल्पातीत होकर साधना के महा-पथ पर बढ़ता रहता है। महामहिम आचार्यप्रवर श्री तुलसीदासजी महाराज इसीप्रकार के सन्तरल थे। आपश्री का जन्म मेवाड़ के जूनिया ग्राम में हुआ था। आपके पूज्य पिताश्री का नाम फकीरचन्दजी था और माता का नाम फूलाबाई था । आपके पूज्य पिताश्री अग्रवाल समाज के प्रमुख नेता थे। आपका जन्म सं० १७४३ आश्विन शुक्ला अष्टमी सोमवार को हुआ था। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' उक्ति के अनुसार आपके जीवन में अनेक विशेषताएँ थीं। आपकी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण थी। किन्तु साथ ही पूर्वभवों के संस्कारों के कारण आपके मन में संसार के भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण नहीं था। आपके अन्तर्मानस की विरक्त वृत्ति को निहारकर माता और पिता के मन में यह विचार उत्पन्न हुए कि कहीं यह साधु न बन जाय । अतः पानी आने के पूर्व ही पाल बाँधनी चाहिए-इसलिए पन्द्रह वर्ष की किशोरावस्था में ही इनका पाणिग्रहण एक रूपवती कन्या के साथ कर दिया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.s
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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