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________________ युगप्रवर्तक क्रान्तिकारी आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज : व्यक्तित्व और कृतित्व १०१. नमस्कार नहीं करते तो कोई बात नहीं। यतिभक्तों ने मुँह मटकाते हुए कहा-राजन् ! आप बड़े हैं,पृथ्वीपति हैं, आपको तो नमस्कार करना ही चाहिए। यदि आपश्री को कोई एतराज न हो तो हम आचार्यश्री को दूसरा बहुत ही बढ़िया स्थान बता देंगे। दरबार ने कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा। यतिभक्त आचार्यश्री के पास आये और कहा कि महाराजा साहब ने आपको आज्ञा प्रदान की है, अतः आप दूसरे मकान में पधारिये। जहाँ पर आपको ठहरने की योग्य व्यवस्था की गई है। आचार्यप्रवर अपने शिष्यों के साथ चल दिये । यतिभक्तों ने पूर्व योजनानुसार आसोप ठाकुर साहब की हवेली उन्हें ठहरने के लिए बता दी । आचार्यश्री आज्ञा लेकर वहाँ पर ठहर गये । रात्रि का झुरमुट अँधेरा होने लगा। आचार्यश्री ने पहले से ही अपने शिष्यों को सावधान कर दिया कि आज की रात्रि में भयंकर उपसर्ग उपस्थित हो सकते हैं, अतः तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है। सभी ध्यान-साधना में दत्तचित्त हो लग जाओ जिससे कोई भी बाल बाँका न कर सकें । आचार्यश्री जानते थे कि ध्यान में वह अपूर्व बल है जिससे दानवी शक्ति परास्त हो जाती है। रात्रि का गहन अँधेरा धीरे-धीरे छा रहा था। रात्रि के गहन अन्धकार में दानवी शक्ति का जोर बढ़ता है। ज्यों ही अँधेरे ने अपना साम्राज्य स्थापित किया त्यों ही आसुरी शक्ति प्रकट हुई। उसने मानवाकृति में आकर सर्वप्रथम हवेली को परिष्कृत किया और सुगन्धित द्रव्यों से चारों ओर मधुर सुगन्ध का संचार कर दिया। उसके पश्चात् राजसिंहजी का जीव जो व्यन्तर देव बना था, वह अपने असुर परिजनों के साथ उपस्थित हुआ। वह सिंहासन पर बैठा किन्तु उसे मानव की दुर्गन्ध सताने लगी। अरे, आज इस हवेली में कौन मानव ठहरे हैं ? लगता है मौत ने इनको निमन्त्रण दिया है। इन्हें मेरी दिव्य-दैवी शक्ति का भान नहीं है। मैं अभी इन्हें बता दूंगा कि मेरे में कितनी असीम शक्ति है। विकराल रूप बनाकर वह आचार्यश्री के चरणों में पहुंचा और साँप, बिच्छू, शेर, चीते आदि विविध रूप बनाकर आचार्यश्री को संत्रस्त करने का प्रयास करने लगा। जब आध्यात्मिक शक्ति के सामने दानवी शक्ति का बल कम हो गया, तब उसने क्रोध में आकर जिस पट्टे पर आचार्यश्री विराजमान थे उसका एक पाया तोड़ दिया और देखने लगा अब नीचे गिरे, अब नीचे गिरे। किन्तु पूज्यश्री ध्यान में इतने तल्लीन थे कि वे तीन पाये वाले पट्टे पर पूर्ववत् ही बैठे रहे। दानवी शक्ति यह देखकर हैरान थी-क्या जादू है इनके पास । ये तीन पाये पर ही बैठे हुए हैं। अन्त में हारकर उसने कहा-अभी रात में ही यहाँ से निकल जाओ, नहीं तो तुम्हें भस्म कर दूंगा। पूज्यश्री मौन रहे। तो उसने कहा-रात में नहीं जाते हो तो कोई बात नहीं, कल सुबह ही यहाँ से चले जाना । अन्यथा मैं सभी को मौत के घाट उतार दूंगा। दानवी शक्ति अन्त में हारकर अपने स्थान पर जाकर बैठ गयी । आचार्यश्री ने ध्यान से निवृत्त होकर जैनागमों में से संग्रहीत अर्ध-मागधी भाषा में भानुद्वार को उच्च स्वर से सुनाया। दानवी शक्ति ने जब सुना तब उसके आश्चर्य का पार न रहा-अरे यह तो कोई विशिष्ट व्यक्ति है, इसे कोई विशेष ज्ञान है जिसके कारण इसे हमारी, अवगाहना, स्थिति, भवन और अन्य ऋद्धियों का परिज्ञान है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारा ही नहीं हमारे से भी बढ़कर जो देव हैं उनके सम्बन्ध में भी ये अच्छी तरह से जानते हैं। जिन चीजों को हम नहीं जानते उन चीजों को ये जानते हैं। बड़े अद्भुत हैं ये व्यक्ति। दानवी शक्ति अपने स्थान से उठकर आचार्यश्री के श्री चरणों में पहुंची और उसने नम्र शब्दों में निवेदन किया-भगवन् ! मैं आपको समझ नहीं सका। आप तो महान् हैं। हमारे से अधिक ज्ञानी हैं । हमें जिन बातों का परिज्ञान नहीं है, वे बातें भी आप जानते हैं । बताइये आपको कौन सा ज्ञान है ? आचार्यश्री ने मधुर मुसकान बिखरते हुए कहा.-मेरे में कोई विशेष ज्ञान नहीं है। मैं जो बात कह रहा हूँ वह बात श्रमण भगवान महावीर ने अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर कही है। हम उन्हीं की वाणी को दुहरा रहे हैं । यह आगम वाणी है जिसमें अनेक अपूर्व बातें हैं यदि आप सुनेंगे तो ताज्जुब करेंगे। दानवी शक्ति ने विनत होते हुए कहा-हम आपकी यह स्वाध्याय प्रतिदिन सुनना चाहते हैं। क्या आप हमें यह स्वाध्याय सुनायेंगे? आचार्यप्रवर ने कहा-तुम्हारे कहने से हमें कल यहाँ से प्रस्थान करना है। फिर तुम्हें किस प्रकार स्वाध्याय सुना सकेंगे। दानवी शक्ति ने कहा--भगवन् ! आप यहाँ रह सकते हैं, किन्तु अपने शिष्य आदि को मत रखिये। आचार्यश्री ने कहा-कहीं सूर्य और उसका प्रकाश पृथक् रह सकता है ? नहीं । वैसे ही गुरु और शिष्य कैसे पृथक् रह सकते हैं । ये तो देह की छाया की तरह सदा साथ में ही रहते हैं। उनका नाम ही अन्तेवासी ठहरा। दानवी शक्ति ने कहा-आप अपने शिष्यों सहित यहाँ पर प्रसन्नता के साथ रह सकते हैं, किन्तु अन्य व्यक्तियों को यहां आने न दीजिएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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