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________________ युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज : व्यक्तित्व और कृतित्व और ठीक इसके विपरीत भाईचारा (brotherhood), दान (charity), स्वच्छता (cleanliness), ब्रह्मचर्य (chasti ty), क्षमा (forgiveness), मंत्री ( friendship), कृतज्ञता ( gratitude), विनम्रता (humility), न्याय ( Justice), दया (kindness), श्रम (labour), उदारता (liberlity) प्रेम (love), कृपा (mercy), संयम ( moderation), सुशीलता ( modesty ), पड़ोसीपन का भाव ( neighbourliness ), हृदय की शुद्धता ( purity of heart), सदाचार (righteousness), धर्य ( steadfastness), सत्य ( truth), विश्वास ( trust ) को ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है । " ૨૭ इससे स्पष्ट है कि इस्लाम परम्परा में भी उन तत्त्वों की अवहेलना की गयी है जिससे हिंसा की उत्पत्ति और वृद्धि होती है । कुरआन के प्रारम्भ में ही खुदा को उदार, दयावान कहकर संबोधित किया है ।" यहाँ तक कि पशुओं को कम भोजन देना, उन पर चढ़ना, सामान लादना आदि का भी इस्लामधर्म में विरोध किया गया है । वह वृक्षों को काटने के लिए भी नहीं कहता । " इसलामधर्म में कहा है - खुदा सारे जगत् ( खल्क) का पिता है, जगत् में जितने भी प्राणी हैं वे खुदा के पुत्र ( बन्दे ) हैं । कुरान शरीफ सुरा उलमायाद सियारा मंजिल तीन आयत तीन में लिखा है— मक्का शरीफ की हद में कोई भी जानवर न मारे, यदि भूल से मार ले तो अपने घर के जो पालतू जानवर हैं उसे वहाँ पर छोड़ दें । मकका शरीफ की यात्रा को जाये तब से लेकर पुनः लौटने तक रोजा रखा जाय और गोश्त का इस्तेमाल न किया जाय । आगे चलकर सुरे अनयाम आयत १४२ में लिखा है कि सब्जी और अन्न को ही खाया जाय किन्तु गोश्त को नहीं"बमिल अनआमें हमूल तम्बू वफसद कुलुमिमा रजक कुमुल्ला हो ।” हजरत मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी हजरत अली साहब ने" कहा है-हे मानव ! तू पशु-पक्षियों की कब्र अपने पेट में मत बना अर्थात् पशु-पक्षियों को मारकर उनका भोजन मत कर। इसी तरह दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक बादशाह अकबर ने भी कहा है— मैं अपने पेट को दूसरे जीवों का कब्रिस्तान बनाना नहीं चाहता । जिसने किसी की जान बचायी तो मानो वह सारे इनसानों को जान बख्शी । " विश्व के समस्त धर्मों ने अहिंसा को स्वीकार किया है। वह धर्म का मूल आधार है। संसार में चारों ओर दुःख की जो ज्वालाएँ उठ रही हैं उसका मूल कारण हिंसक भावना है। अहिंसा भगवती है। भगवान महावीर ने कहा है जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है । अतः अहिंसा के मर्म को समझा जाय । इस प्रकार अहिंसा पर आचार्यप्रवर ने गम्भीर विश्लेषण किया जिसे सुनकर बादशाह ने कहा—-योगी प्रवर ! मेरे योग्य सेवा हो तो फरमाइये । उत्तर में आचार्यश्री ने कहा हम जैन श्रमण है । अपने पास पैसा आदि नहीं रखते हैं और न किसी महिला का स्पर्श भी करते हैं। हम पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । यहाँ तक कि मुँह की गरम हवा से हवा के जीव न मर जायें इसलिए मुख पर मुखवस्त्रिका रखते हैं और रात्रि के अन्धकार में पैर के नीचे आकर कोई जन्तु खतम न हो जाय इसलिए रजोहरण रखते हैं । भारत के विविध अंचलों में पैदल घूमकर धर्म का प्रचार करते हैं । मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप किसी भी प्राणी को न मारें; गोश्त का उपयोग न करें - यही हमारी सबसे बड़ी सेवा होगी । बादशाह ने आचार्यश्री के आदेश को सहर्ष स्वीकार किया और नमस्कार कर अपने राजभवन में आ गया । वर्षावास पूर्ण होने जा रहा था, आचार्यप्रवर के सम्पर्क से दीवान गया था । उनके अन्तर्मानस में यह विचार उद्बुद्ध हो रहे थे कि यदि आचार्य श्री प्रभावना हो सकती है। जोधपुर राज्य की जनता धर्म के ममं को भूलकर अज्ञान अन्धकार में भटक रही है । चैतन्योपासना की छोड़कर जडोपासना में दीवानी बन रही है। दीवान खींवसीं जी ने आचार्यप्रवर से निवेदन कियाभगवन् ! कृपाकर आप एक बार जोधपुर पधारें। क्योंकि "न धमो धार्मिकबिना ।" Jain Education International खीवसींहजी का जीवन ही धर्म में रंग जोधपुर पधारें तो धर्म की अत्यधिक आचार्यश्री ने कुछ चिन्तन के पश्चात् कहा- दीवानजी आपका कथन सत्य है; मारवाड़ में धर्म का प्रचार बहुत ही आवश्यक है । किन्तु साम्प्रदायिक भावना का इतना प्राबल्य है कि वहाँ पर सन्तों का पहुँचना खतरे से खाली नहीं है । जिस प्रकार बाज पक्षियों पर झपटता है उसी प्रकार धर्मान्ध लोग सच्चे साधुओं पर झपटते हैं। मैंने यहाँ तक सुना है कि सम्प्रदायवाद के दीवानों ने इस प्रकार के सिद्धान्त का निर्माण किया है कि "चार सवाया पाँच" अर्थात् मक्खी चतुरिन्द्रिय है और जैन साधु पंचेन्द्रिय हैं उनको मारने में सवा मक्खी का पाप लगता है। इस प्रकार निकृष्ट कल्पना कर अनेकों साधुओं को मार दिया गया है । अतः ऐसे प्रदेश में विचरण करना खतरे से खाली नहीं है । For Private & Personal Use Only mite www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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