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________________ ८८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : अष्टम खण्ड सत्तमो जिनवर उदय दिनकर सोभागी महिमा निलो। भगति वच्छल विरद जेहने धन्य स्वामी त्रिभुवन तिलो॥ संवत सोल उगणासी बरषे विजयदशमी सोमवार ए। बाहादरपुर माहे तवन कोधु भणतां सुणतां जयकार ए ॥ सुबुद्धि आणी सहज वाणी जिन तणां गुण भाषी ए। ऋषि सोमजी चा सोस जीवराज बोले दया तणां फल दाखी ए॥ -सप्तजिनस्तवन ।। कहा जाता है कि जीवराजजी महाराज ने अत्यधिक धर्म प्रचार किया। जीवन की सान्ध्यबेला में समाधिभाव में अवस्थित रहने से उन्हें विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि हुई जिससे उन्होंने अपना अन्तिम समय सन्निकट समझकर ससंथारा आयु पूर्ण किया। यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जीवराजजी महाराज ने नया धर्म स्थापित नहीं किया, किन्तु पुरातन परम्परा में जो आचार-शैथिल्य हो चुका था उसका उचित संशोधन किया। शिथिलाचार के स्थान पर शुद्धाचार की संस्थापना की। श्रमण-जीवन में जो आडम्बरप्रियता, और जड़ता आ चुकी थी उसे दूर कर शुद्ध साधुचर्या का पथ प्रशस्त किया । प्रस्तुत क्रियोद्धार में किसी भी प्रकार का मनोमालिन्य व रागद्वेष की भावना नहीं थी; किन्तु विशुद्ध धर्म की पुनर्जागरणा थी । __स्थानकवासी परम्परा एक विशुद्ध आध्यात्मिक परम्परा है। उसका किसी भी जड़-पूजा में विश्वास नहीं है। किन्तु विशुद्ध चैतन्यतत्त्व की उपासना और साधना का ही संलक्ष्य है। वह बाह्य आडम्बर, विवेकशून्य क्रियाकाण्ड में विश्वास नहीं करती। उसका मन्तव्य है कि धर्म का आधार भौतिक नहीं, मानव की आन्तरिक आध्यात्मिक भावना है । त्याग, तप, संयम स्थानकवासी परम्परा के मूल स्वर रहे हैं जिसके कारण यह परम्परा शतशाखी की भाँति दिन-प्रतिदिन अभिवृद्धि को प्राप्त होती गयी । जीवराजजी महाराज के पश्चात् लवजी ऋषि जी म०, धर्मसिंह जी म०, धर्मदास जी म०, श्री हरजी ऋषि जो महाराज आदि चार महापुरुषों ने भी क्रियोद्धार कर अभिनव जागृति का संचार किया । इन्हीं पाँचों क्रियोद्धारकों की परम्परा ही आज स्थानकवासी परम्परा के रूप में है। जीवराजजी म. के प्रधान शिष्य लालचन्दजी महाराज थे। उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में भी इतिहास मौन है। किन्तु वे एक महान प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। उनके अनेक शिष्य थे जिनके नामों से पृथक्-पृथक् सम्प्रदाय हैं। विस्तार भय से मैं उन सभी की चर्चा यहाँ नहीं कर रहा हूँ। मैं यहाँ केवल जीवराजजी महाराज के शिष्य लालचन्दजी महाराज, आ० तुलसीदासजी महाराज, आ० सुजानमलजी म०, आ० जीतमलजी म०, आ० ज्ञानमलजी म०, आ० पूनमचन्दजी म०, आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी म०, महास्थविर ताराचन्द जी म०, उपाध्याय पुष्कर मुनि जी महाराज का परिचय अगले अध्याय में दे रहा हूँ। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थल १ "तन्मध्ये वेषधरास्तु वि. त्रयस्त्रिशदधिकशशत १५३३ वर्षे जाता तत्र प्रथमो वेषधारी भाणाख्योऽभूतदिति ।" -पट्टावली समुच्चय, पृष्ठ ६७ "तद्वेषधरास्तु सं. १५३८ वर्षे जाताः, तत्र प्रथमो वेषधारी ऋषि भाणाख्योऽभूदिति ।" -पट्टावली समुच्चच, पृष्ठ १५७ "शत पन्नर तेत्रीसनी सालइ, भाणजी ने दीक्ख आलइ।" -जैनगुर्जरक विओ, भाग ३, पृष्ठ १०६४ २ मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ, प्र. अ., पृष्ठ २१६ । ३ देखिए रूपऋषि भास । ४ देखिए जैन गुर्जर कविओ, भाग तीसरा, पृष्ठ ७४० । - - - -- - . - O Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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