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________________ जैन-धर्म-परम्परा : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण ७६ में आनन्दपुर में राजा धवसेन के सामने श्रीसंघ को कल्पसूत्र सुनाया था। पूर्व माथुरी वाचना और नागार्जुन वाचना में जिन-जिन विषयों में मतभेद हो गया था उन भेदों का देवगणी क्षमाश्रमण ने समन्वय किया। जिन पाठों में समन्वय न हो सका उन स्थलों पर स्कंदिलाचार्य के पाठों को प्रमुखता देकर नागार्जुन के पाठों को पाठान्तर के रूप में स्थान दिया। टीकाकारों ने 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' के रूप में उनका उल्लेख किया है । देवगणी क्षमाश्रमण के पश्चात् पूर्व-ज्ञान-परम्परा विच्छिन्न हो गयी।" पुराने गच्छ लुप्त हो रहे थे, नित्य नये गच्छ अस्तित्व में आ रहे थे । अतः आचार्यों के नामों की विभिन्न परम्पराएँ उपलब्ध होती हैं । उनमें से कई विशृंखलित हो गयी हैं । यह एक ऐतिहासिक सत्य तथ्य है कि आर्य सुहस्ती के समय कुछ शिथिलाचार प्रारम्भ हुआ था। वे स्वयं सम्राट सम्प्रति के आचार्य बनकर कुछ सुविधाएँ अपनाने लगे थे, किन्तु आर्य महागिरि के संकेत से वे पुनः संभल गये । लेकिन उनके सम्भलने पर भी एक शिथिल परम्परा का प्रारम्भ हो गया । वीर निर्वाण की नवीं शताब्दी (८५० ) में चैत्यवास की संस्थापना हुई। कुछ शिथिलाचारी श्रमण उग्र विहार यात्रा को छोड़कर मन्दिरों के परिपार्श्व में रहने लगे । वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी तक इनका प्रभुत्त्व बढ़ नहीं सका । देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के स्वर्गवास होने पर इनका समुदाय शक्तिशाली हो गया। विद्याबल और राज्य बल मिलने से उन्होंने शुद्धाचार्यों का उपहास किया। 'सम्बोध प्रकरण' नामक ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्र ने उन चैत्यवासियों के आचार-विचारों का सजीव वर्णन किया है। आगम अष्टोत्तरी में अभयदेवसूरि ने लिखा है कि देवद्धगणी के पश्चात् जैन शासन की वास्तविक परम्परा का लोप हो गया। चैत्यवास के पहले गण, कुल और शाखाओं का प्राचुर्य होने पर भी उनमें किसी भी प्रकार का विग्रह या अपने गण का अहंकार नहीं था । जो अनेक गण थे, वे व्यवस्था की दृष्टि से थे । विभिन्न कारणों से गणों के नाम बदलते रहे । भगवान महावीर के प्रधान शिष्य सुधर्मा के नाम से भी सौधर्म गण हुआ । चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष संविघ्नविधिमार्ग या सुविहित मार्ग कहलाया और दूसरा पक्ष चत्यवासी । Jain Education International ******** आचार्य देवद्धगणी क्षमाश्रमण के पश्चात् की पट्ट परम्परा में एकरूपता न होने के कारण हम यहाँ पर कुछ विशिष्ट प्रभावशाली मुनियों का ही परिचय दे रहे हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर - आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जैन परम्परा में तर्कविद्या और तर्कप्रधान संस्कृत वाङ्मय के आद्य निर्माता हैं। वे प्रतिभा मूर्ति हैं । जिन्होंने उनका प्राकृत ग्रन्थ सन्मतितर्क और संस्कृत द्वात्रिंशिकाएँ देखी हैं वे उनकी प्रतिभा की तेजस्विता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। उन्होंने चर्वितचर्वण नहीं किया । किन्तु सन्मतितर्क जैसे मौलिक ग्रन्थों का सृजन किया । सन्मतितर्क जैन दृष्टि से और जैन मन्तव्यों को तर्क-शैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करने वाला जैन साहित्य का सर्वप्रथम ग्रन्थ है। इसमें तीन काण्ड हैं। प्रथम काण्ड में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि का सामान्य विचार है। द्वितीय काण्ड में ज्ञान और दर्शन पर सुन्दर विश्लेषण है। तृतीय काण्ड में गुण और पर्याय, अनेकान्त दृष्टि और तर्क के विषय में अच्छा प्रकाश डाला गया है । आचार्य सिद्धसेन ने बत्तीस बत्तीसियाँ भी रची थीं। उनमें से इक्कीस बत्तीसियाँ वर्तमान में उपलब्ध हैं जो संस्कृत भाषा में हैं। प्रथम की पाँच बत्तीसियों में श्रमण भगवान महावीर की स्तुति की गयी है और ग्यारहवीं बत्तीसी में पराक्रमी राजा की स्तुति की गयी है। वे आद्य स्तुतिकार हैं । उन स्तुतियों को पढ़कर अश्वघोष के समकालीन बौद्ध स्तुतिकार मातृबेटरचित अर्थ शतक और आर्यदेवरचित चतुश्शतक की स्मृति हो आती है। आचार्य हेमचन्द्र की दोनों बत्तीसियाँ तथा आचार्य समन्तभद्र का स्वयंभू स्तोत्र और युक्त्यनुशासन नामक दार्शनिक स्तुतियाँ भी आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की स्तुतियों का अनुकरण है। सिद्धसेन बाद विद्या के पारंगत पण्डित थे। उन्होंने सातवीं वादोपनिषद् बत्तीसी में वाद के सभी नियम उपनियमों का वर्णन कर विजय पाने का उपाय भी बताया है। आठवीं बत्तीसी में वादविद्या को कल्याणमार्ग न बताने का प्रयास भी किया है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कल्याण का मार्ग अन्य है, वादी का मार्ग अन्य है । क्योंकि किसी भी मुनि ने वाग्युद्ध को शिव का उपाय नहीं बताया है। उनकी बत्तीसियों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, आजीवक और जैनदर्शन का वर्णन है, किन्तु चार्वाक एवं मीमांसक दर्शन का वर्णन नहीं है । सम्भव है कि जो बत्तीसियाँ उपलब्ध नहीं हैं उनमें यह वर्णन होगा। जैनदर्शन का वर्णन अनेक बत्तीसियों में किया है । वे उपनिषद्, गीता, वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित थे । जैसे दिनाग ने बौद्धदर्शनमान्य विज्ञानवादको सिद्ध करने के लिए पूर्व परम्परा में किचित् परिवर्तन करके बौद्धप्रमाणशास्त्र को व्यवस्थित रूप दिया उसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर ने भी पूर्व परम्परा का सर्वथा अनुकरण For Private & Personal Use Only Aff www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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