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________________ जैन-धर्म-परम्परा : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण ७. ++++++++ +++++++++++++++++++++++++++++++++++++ ++++++++++. O रूप से सम्मिलित होते थे । राजा ने आचार्य कालक को निवेदन किया कि मुझे तो महापर्व संवत्सरी की आराधना करनी है । अतः संवत्सरी महापर्व छठ को मनाया जाय तो अधिक श्रेयस्कर है । आचार्य ने कहा-उस दिन का उल्लंघन कदापि नहीं किया जा सकता। राजा के आग्रह से आचार्य ने कारणवशात् चतुर्थी को सम्वत्सरी महापर्व मनाया ।" आचार्य ने अपवादरूप से चतुर्थी को सम्वत्सरी पर्व की आराधना की थी न कि उत्सर्ग-सामान्य स्थिति के रूप में । (१५) आर्य सिंहगिरि---आर्य सिंहगिरि कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण थे। जातिस्मरणज्ञान सम्पन्न थे। उनके मुख्य चार शिष्य थे—आर्य समित, आर्य धनगिरि, आर्य वज्रस्वामी और आर्य अर्हददत्त । आर्य समित का जन्म अवन्ती देश के तुम्बवन ग्राम में हुआ था । इनके पिता का नाम धनपाल था । ये जाति से वैश्य थे। उनकी बहन का नाम सुनन्दा था। उसका पाणिग्रहण तुम्बवन के धनगिरि के साथ सम्पन्न हुआ था। आर्य समित योगनिष्ठ और महान तपस्वी थे। कहा जाता है कि आभीर देश के अचलपुर ग्राम में इन्होंने कृष्णा और पूर्णा सरिताओं को योगबल से पार किया और ब्रह्मद्वीप पहुँचे । वहाँ पाँच सौ तापसों को अपने चमत्कार से चमत्कृत कर अपना शिष्य बनाया । (१६) आर्य वज्रस्वामी-आर्य समित की बहिन का विवाह इब्भपुत्र धनगिरि के साथ हुआ था । धनगिरि धर्मपरायण व्यक्ति थे। जब उनके सामने धनपाल की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तब उन्होंने उसे अस्वीकार करते हुए कहा-मैं विवाह नहीं करूंगा, संयम लूंगा। किन्तु धनपाल ने उनका विवाह कर दिया। विवाह हो जाने पर भी उनका मन संसार में न रमा। अपनी पत्नी को गर्भवती छोड़कर ही उन्होंने आर्य सिंहगिरि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। जब बच्चे का जन्म हुआ तब उसने पिता की दीक्षा की बात सुनी, सुनते ही उसे जातिस्मरण हुआ। माता के मोह को कम करने के लिए वह रात-दिन रोने लगा। एक दिन मुनि धनगिरि और समित भिक्षा के लिए जा रहे थे जब आचार्य सिंहगिरि ने शुभ लक्षण देखकर शिष्यों को कहा जो भी भिक्षा में सचित्त और अचित्त मिल जाय उसे ले लेना । दोनों मुनि भिक्षा के लिए सुनन्दा के यहाँ पहुँचे । सुनन्दा बच्चे से ऊब गयी थी। ज्यों ही आर्य धनगिरि ने भिक्षा के लिए पात्र रखा उसने आवेश में आकर बालक को पात्र में डाल दिया और बोली-आप तो चले गये और पीछे इसे छोड़ दिया । रो-रो कर इसने परेशान कर दिया है । इसे भी अपने साथ ले जाइये। धनगिरि ने उसे समझाने का प्रयास किया, किन्तु वह न समझी। धनगिरि ने छह मास के बालक को ले लिया, गुरु को सौंपा; अतिभार होने से गुरु ने बच्चे का नाम वज्र रखा । पालन-पोषण हेतु गृहस्थ को दे दिया गया। श्राविका के साथ वह साध्वियों के उपाश्रय में जाता, और निरन्तर स्वाध्याय सुनने से उसे ग्यारह अंग कण्ठस्थ हो गये। जब बच्चा तीन वर्ष का हुआ उसकी माता ने बच्चे को लेने के लिए राजसभा में विवाद किया। माता ने बालक को अत्यधिक प्रलोभन दिखाये, किन्तु बालक उधर आकृष्ट नहीं हुआ और धनगिरि के पास जाकर रजोहरण उठा लिया। जब बालक आठ वर्ष का हुआ तब धनगिरि ने उसे दीक्षा दी, वह वज्रमुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए। जं भक देवों ने अवन्ती में उनकी आहार-शुद्धि की परीक्षा ली । उस परीक्षा में वे पूर्ण रूप से खरे उतरे। देवताओं ने लघुवय में ही आपको वैक्रिय-लब्धि और आकाशगामिनी विद्या दी ।" एक बार उत्तर भारत में भयंकर दुभिक्ष पड़ा। उस समय विद्या के बल से आप श्रमणसंघ को कलिंग प्रदेश में ले गये। पाटलीपुत्र के इब्भश्रेष्ठि धनदेव की पुत्री रुक्मिणी, आपके रूप पर मुग्ध हो गयी। धनश्रेष्ठी ने पुत्री के साथ करोड़ों की सम्पत्ति दहेज में देने का प्रस्ताव किया । पर आप कनक और कान्ता के मोह में उलझे नहीं, किन्तु रुक्मिणी को प्रतिबोध देकर प्रव्रज्या प्रदान की। . कहा जाता है एक बार वज्रस्वामी को कफ की व्याधि हो गयी। उन्होंने एक सोंठ का टुकड़ा भोजन के पश्चात् ग्रहण करने हेतु, कान में डाल रखा था। पर उसे लेना भूल गये। सान्ध्य प्रतिक्रमण के समय वन्दन करते हेतु वे नीचे झुके तो वह सौंठ का टुकड़ा गिर पड़ा। अपना अन्तिम समय सन्निकट समझकर आपने वज्रसेन से कहाद्वादशवर्षीय भयंकर दुष्काल पड़ेगा अतः साधु-सन्तों के साथ तुम सौराष्ट्र-कोंकण प्रदेश में जाओ और मैं रथावर्त पर्वत पर अनशन करने जाता हूँ। जिस दिन तुम्हें लक्ष मूल्य वाले चावल में से भिक्षा प्राप्त हो उसके दूसरे दिन सुकाल होगा। ऐसा कहकर आचार्य संथारा करने हेतु चल दिये।। वचस्वामी का जन्म वीर निर्वाण सं० ४६६ में, दीक्षा ५०४ में, आचार्य पद ५३६ में तथा ५८४ में आप स्वर्गस्थ हुए। वनसेन-आर्य वचसेन के समय भयंकर दुभिक्ष पड़ा। निर्दोष भिक्षा मिलना असंभव हो गया जिसके कारण सात सौ चौरासी श्रमण अनशन कर परलोकवासी हुए। सभी क्षुधा से छटपटाने लगे। जिनदास श्रेष्ठि ने एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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