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________________ O Jain Education International ७२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड चर्चा कर रहे थे जिसे सुन प्रभव विरक्त हो गये और तीस वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या ग्रहण की। पचास वर्ष की अवस्था में जम्बू के केवलज्ञानी होने पर आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए और एक सौ पाँच वर्ष की उम्र में अनशन कर स्वर्गवास हुए। (४) आर्य शय्यंभव - आर्य प्रभव के स्वर्गस्थ होने पर शय्यंभव उनके पट्ट पर आसीन हुए। वे राजगृह के निवासी वत्स गोत्रीय ब्राह्मण थे । एक समय वे यज्ञ कर रहे थे। आर्य प्रभव के आदेशानुसार कुछ शिष्य उनके समीप आये और यह कहा - अहो कष्टमहो कष्टं पुनस्तत्वं न ज्ञायते ( अत्यन्त परिताप है तत्त्व को कोई नहीं जानता । ) इस वाक्य से वे जागृत हुए । उन्होंने मुनियों से पूछा तत्त्व क्या है ? शिष्यों ने कहा- यदि तत्त्व जानना है तो हमारे गुरु के पास चलो। वे प्रभवस्वामी के पास पहुँचे और उनके प्रवचन से प्रबुद्ध होकर प्रव्रज्या ग्रहण की । चतुर्दश पूर्वो का अध्ययन किया । जब उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी तब उनकी पत्नी सगर्भा थी। पश्चात् पुत्र हुआ । मनक नाम रखा । मनक ने चम्पानगरी में आपके दर्शन किये। मुनि बना। छह माह का अल्पजीवी समझकर पुत्र को श्रमणाचार का सम्यक् परिज्ञान कराने हेतु दशवैकालिक का निर्माण किया । इन्होंने अट्ठाइस वर्ष की उम्र में प्रव्रज्या ग्रहण की। चौंतीस वर्ष सामान्य मुनि अवस्था में रहे और तेईस वर्ष युगप्रधान आचार्य पद पर वीर निर्वाण संवत् ६८ में पचासी वर्ष आयु पूर्ण कर स्वर्गस्थ हुए । (५) आर्य यशोभद्र – ये आर्य शय्यंभव के प्रधान शिष्य थे । तुंगियायन गोत्रीय ब्राह्मण थे । बाइस वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की, चौदह वर्ष मुनि अवस्था में रहे और पचास वर्ष युगप्रधान आचार्य पद पर ये वीर सं० १४८ में छियासी वर्ष पूर्ण कर स्वर्गस्थ हुए । । (६) आर्य संभूतिविजय-यशोभद्र के दो उत्तराधिकारी हुए आर्य संभूतिविजय और आये भद्रबाहु आर्य संभूतिविजय माठर गोत्रीय थे । वे बयालीस वर्ष गृहस्थाश्रम में रहे, चालीस वर्ष साधु अवस्था में, आठ वर्ष युगप्रधान आचार्य के पद पर । कुल नब्बे वर्ष की उम्र में वीर निर्वाण संवत् १५६ में स्वर्गस्थ हुए । (७) आर्यभद्रबाहु येन संस्कृति के ज्योतिर्धर आचार्य थे जैन साहित्य सर्जना के आदि पुरुष है। आगम व्याख्याता, इतिहासकार और साहित्य के सर्जक के रूप में इनका नाम प्रथम है। आपका जन्म प्रतिष्ठानपुर में हुआ । पैंतालीस वर्ष की वय में आचार्य यशोभद्र के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। चौदह वर्ष तक युगप्रधान आचार्य पद पर रहे । वीर सं १७० में छिहत्तर वर्ष की आयु में स्वर्गस्थ हुए । १४ आर्य प्रभव से प्रारंभ होने वाली श्रुतकेवली परम्परा में भद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली हैं। चतुर्दश पूर्वधर हैं । उनके पश्चात् कोई भी श्रमण चतुर्दशपूर्वी नहीं हुआ । दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार, ' कल्पसूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, आदि दस निर्वृतियां आपकी रचित मानी जाती हैं किन्तु कितने ही विद्वान नियुक्तियों की रचना द्वितीय भद्रबाहु की मानते हैं । उवसग्गहर स्तोत्र" आपकी ही रचना है। आगमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में आपके द्वारा ही सम्पन्न हुई ।" उस समय आप नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर रहे थे। संघ के आग्रह को सम्मान देकर स्थूलभद्र मुनि को बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया। दस पूर्व अर्थ सहित सिखाये । ग्यारहवें पूर्व की वाचना के समय आर्य स्थूलभद्र ने बहनों को चमत्कार दिखाया; अतः वाचना बन्द की । किन्तु संघ के आग्रह से अंतिम चार पूर्वो की वाचना दी, किन्तु अर्थ नहीं बताया और दूसरों को उसकी वाचना देने की स्पष्ट मनाई की।" अर्थ की दृष्टि से अंतिम केवली भद्रबाहु है स्थूलभद्र शाब्दिक दृष्टि से चौहपूर्वी थे, पर अर्थ की दृष्टि से दसपूर्वी थे मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त आपके अनन्य भक्त थे । उनके द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों का फल आपने बताया जिसमें पंचम काल की भविष्यकालीन स्थिति का रेखा चित्रण था । श्वेतांबर और दिगंबर दोनों ही परम्परा आपके प्रति पूर्ण श्रद्धाभाव रखती हैं । वीर निर्वाण संवत् १७० में आपका स्वर्गवास हुआ । वीर निर्वाण १७० के पश्चात् आर्य भद्रबाहुस्वामी के शिष्य काश्यप गोत्रीय स्थविर गोदास से गोदासगण प्रारम्भ हुआ जो ताम्रलिप्तिया (ताम्रलिप्तिका), कोडीवरिसिया ( कोटिवर्षीया), पोंडवद्धणिया (पौण्ड्रवर्धनिका) और दासी खम्बडिया (दासी - कपेटिका ) इन चार शाखाओं में विभाजित हो गया । (5) आर्य स्थूलभद्र – ये जैन जगत के उज्ज्वल नक्षत्र हैं । मंगलाचरण के रूप में उनका स्मरण किया जाता है । ये पाटलीपुत्र के निवासी थे। इनके पिता का नाम शकडाल था जो नन्द महाराजा के महामंत्री थे । स्थूलभद्र के लघु भ्राता का नाम श्रेयक था । यक्षा, यक्षदत्ता, भूता भूतदत्ता, सेणा, वेणा और रेणा ये सातों ही आर्य स्थूलभद्र की सगी बहनें थीं । स्थूलभद्र जब यौवन की चौखट पर पहुँचे तब कोशा गणिका के रूपजाल में फँस गये। महापण्डित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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