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________________ MARATHI जैन-संस्कृति में ब्रह्मचर्य एवं आहार-शुद्धि MInititition महासती श्री प्रियदर्शना, एम० ए० [महासतीजी उज्ज्वलकुमारीजी की शिष्या] जैन संस्कृति में ब्रह्मचर्य भरतखण्ड, आर्यावर्त, भारत, भारतवर्ष, हिन्दुस्तान, India आदि विविध नामों से सम्बोधित इस धरा के कण-कण में सौरभ, सुषमा, सौन्दर्य एवं संगीत स्वर; इसकी आत्मा में ममत्व, माधुर्य तथा आकर्षण; इसकी संस्कृति में वैभव, वीरता, विराग तथा बलिदान का सौष्ठव रहा है। यह जौहर तथा स्वाभिमान की भूमि, जहाँ की देवियों ने अपने सतीत्व एवं आदर्श की रक्षा के लिए, अपने आपको धधकती ज्वालाओं में झोंक दिया था। यह त्याग और नीति की, ममता, सौहार्द, वात्सल्य की, धर्म और त्याग की, ज्ञान-ध्यान-दर्शन की, श्रमिकों की एवं कृषकों की, कला और साहित्य की, आचार-विचार के समानता की प्रसूताभूमि है, जिसने अपने आँचल में अतीत की गरिमा को संजोए रखा । अपने उदात्त विचारों से, अपनी गौरवपूर्ण संस्कृति को अमर बना दिया। वह आदर्शपूर्ण अतीत जिसने प्रगतिमय वर्तमान को राह दी और भविष्य को एक आशा। . अद्भुत महिमामयी यह भारतभूमि भौगोलिक दृष्टि से, विभिन्न नद-नदियों, उत्तुंग पर्वतों तथा वनवनान्तरों से अनेक खण्डों में विभाजित अवश्य है, किन्तु विभाजन केवल शरीर से है न कि आत्मा से । किसी भी राष्ट्र की आत्मा उसकी संस्कृति होती है। संस्कृति बाह्य आचार व्यवहार या वेशभूषा से नहीं परन्तु महान् प्रवृत्तियों, उदात्त भावनाओं एवं विराट् विचारधाराओं से सम्बन्धित है। इसी दृष्टि से भारतीय संस्कृति त्रिपथगा होते हुए भी आत्मत्व की दृष्टि से एक है, अखण्ड है। किन्तु किसी भी संस्कृति के पूर्व कोई विशेषण लगा दिया जाता है तब वह विभाजित हो जाती है । जैसे कि श्रमण संस्कृति, ब्राह्मण संस्कृति आदि । विश्व की विविध संस्कृतियों में श्रमणसंस्कृति एक गौरवपूर्ण प्रधान संस्कृति है। समता प्रधान होने के कारण यह संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है। श्रमणसंस्कृति जैन और बौद्ध धर्म से अनुप्राणित रही है। श्रमण संस्कृति जीवन की संस्कृति है। ज्ञान, विज्ञान, चिन्तन और अनुसन्धान की संस्कृति है। श्रमण संस्कृति की समता सार्वभौम है। श्रमण संस्कृति के पुरस्कर्ता भगवान महावीर तथा उनके समकालीन शाक्यपुत्र गौतम बुद्ध तो थे ही किन्तु लगभग छठी शताब्दी में निर्मित साहित्य में श्रमणों में, निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीवकों की गणना भी की गई है। जैनधारा और बौद्धधारा ये श्रमण संस्कृति की प्रमुख धाराएँ हैं । श्रमण संस्कृति की इन दोनों धाराओं ने अपने सुचिन्तन की सुशीतल जलधारा से, इसको सिंचित किया है। श्रमण संस्कृति की जैनधारा बौद्धधारा से भी प्राचीन है। भारतीय संस्कृति का मूल आधार है-तप, त्याग, संयम और आचार । श्रमण संस्कृति में, विशेषतः जैन संस्कृति में भी ये तत्त्व प्रमुख रूप से स्वीकार किये गये हैं। उनमें भी दम, दान और दया को आत्मोन्नति का मार्ग बताया गया है । आत्मनिग्रह को 'दम' कहा जाता है इसी को संयम भी कहते हैं। आत्मसंयम और इन्द्रिय-दमन से परब्रह्म सम्बन्धी साक्षात्कार होता है। केनोपनिषद् में तो 'दम' को ब्रह्म सम्बन्धी रहस्यज्ञान का आधार बताया है। 'ब्रह्म' आत्मा 'चर्य' याने चलना, आत्मा में चलना इसी का नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य भारतीय संस्कृति का प्रमुख अंग है। श्रमण संस्कृति में ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक बताया है। मन-वचन-काया से इन्द्रियों के संयम, मनोविकारों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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