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________________ उत्तराध्ययन, गीता और धम्मपद : एक तुलना ३७ . * * * + + + ++ + ++++ + + + + + +++ + + +++ + + + +++++ + +++ + + + + +++ + +++ +++++ बन्ध में कर्म आकर इस तरह बँध जाते हैं जैसे दूध में पानी उसे अलग-अलग नहीं किया जा सकता । बंध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं और ये बंध के कारण अपनी-अपनी कर्मशक्ति के अनुसार बँधते हैं। इनके अभाव होने से व्यक्ति कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। तब कर्म-संस्कार आत्मा पर नहीं पड़ते। डॉ. रामनाथ शर्मा ने लिखा है कि "संसार एक रंगमंच के समान है जिस पर सभी को अपने कर्मानुसार निश्चित पार्ट अदा करना पड़ता है।..........."कर्म के सिद्धान्त के साथ पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी लगा हुआ है । कर्म के बंधनों के कारण आत्मा को बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। मोक्ष होने पर ही पुनर्जन्म से छुटकारा मिलता है। धम्मपद के यमकवर्ग में पुनर्जन्म का एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिया है "सारे कार्यों का आरम्भ मन से होता है । मन श्रेष्ठ है। सारे कार्य मनोमय होते हैं । मनुष्य यदि दुष्ट मन से बोलता है तो दुःख इसका पीछा करता है जैसे कि चक्र बैल के पैर का पीछा करता है ।"“ जन्म के बाद मरण और मरण के बाद जन्म निश्चित होता है । कर्म नियमानुसार ही कर्मफल को भोगना पड़ता है । समस्त कर्म फल को एक साथ नहीं भोगा जा सकता। जिस क्रम से कर्मफल को भोगता है, उसी क्रम से कर्मफल का अन्त भी होता है। गीता में आत्मा की शाश्वतता के बतलाने के बाद कहा वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण कर लेती है। अतः जन्म-मरण का चक्र अनादि से चला आया है। जो जन्म-मरण का अन्त कर देता है वही परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है । आत्मा “न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता व न भूयः।" गीता २/२० तथा धम्मपद के आत्मवर्ग में स्वयं को उद्बोधन किया गया है "अत्ताहि अत्तनो नाथो"..."और गीता के छठे अध्याय के पांचवें-छठवें श्लोक में भी इसी प्रकार का कथन किया है। नैतिक समन्वयात्मक दृष्टि-तीनों नीतिपरक रचनायें हैं। सदाचार, सत्कर्म एवं ज्ञान को विशेष महत्व दिया गया है। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में गुरु-शिष्य की विशेषताओं को बतलाया गया है। शिष्य को उपदेशित किया है कि गुरु के निकट रहकर गुरु की आज्ञा-पालन करे, जी आज्ञा को नहीं मानता वह तत्त्वज्ञान को नहीं समझ सकता। इसलिए विनय का आचरण करना चाहिए।"चौथे अध्ययन में साधु के गुणों का विवेचन किया है कि साधु विवेक को बन्द करके लुभाने वाले विषयों में मन नहीं लगावे, क्रोध को शान्त करे, मान को हटावे, माया का सेवन नहीं करे और लोभ का त्याग करे । उत्तराध्ययन की तरह गीता में अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के अधीन एवं दूसरों की निन्दा करने वाला, भगवत् विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष को न इहलोक है और न परलोक है और न सुख ही ।" आलसी और वीर्यहीन रहकर सौ वर्ष तक जीवित रहना निरर्थक है, पर वीर्ययुक्त और दृढ़तापूर्ण रहकर एक दिन का जीवित रहना श्रेष्ठ है। सदाचारी और संयत, बुद्धिमान और ध्यानी इत्यादि अनेक उदाहरणों को प्रस्तुत कर यह बतलाया गया है कि जीव को अपने जीवन का महत्व समझना चाहिए। ज्ञानी पुरुष दुर्लभ है । वह सब जगह पैदा नहीं होता। ऐसे अनेकों नीतियुक्त वचनों का कथन तीनों ग्रन्थों में मिल जाता है । इन तीनों की समन्वयात्मक दृष्टि है। उत्तराध्ययन स्याद्वाद एवं अनेकान्तदृष्टि से वस्तुतत्व को समझने के लिए प्रेरणा देता है । केवल यही बात नहीं है, अपितु उन विभिन्न आदर्शों को तर्क-वितर्क एवं उपदेशात्मक शैली से बतला दिया कि जिसे सर्वसाधारण पढ़कर या गम्भीर रूप से सुनकर आत्म-कल्याण की भावना को पैदा कर लें। गीता कर्मयोग की शिक्षा अन्त तक देती है, और व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का बोध कराती है। धम्मपद सत्कर्म की ओर प्रेरित करता है "न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाःचन ।" वाली युक्ति मानव कर्तव्य का बोध दिलाती है। गीता "स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिदि लभते नरः ।" और उत्तराध्ययन "अप्पणा सच्चमेसेच्चा, मित्ति भूएहि कप्पये।” अतः तीनों का प्रतिपाद्य विषय आत्मकर्तव्य ही है। प्रत्येक मानव का लक्ष्य कर्तव्य को जानना है। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थल १ गीता अ० २।३०-३१ देही नित्यभवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ! । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ स्वधर्ममपि चावेश्य न विकम्पितुमर्हसि । धाद्धि युद्धाच्छ्योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ २ वही अ० २।४७-४८ ३ उत्तराध्ययम ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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