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________________ Jain Education International ३४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड समस्त भारतीय दर्शनों का एकमात्र उद्देश्य दुःख से निवृत्ति और परमपद की प्राप्ति रहा है। और परमात्मपद आध्यात्मिक साधनों द्वारा ही संभव है । इसलिए भारतीय चिंतकों ने आध्यात्मिकता को अधिक महत्व दिया है । उत्तराध्ययन सूत्र में विविध तत्त्वज्ञान का सरल रूप में प्रतिपादन किया गया है। कुछ स्थलों पर कथानकों द्वारा वैराग्य भाव को बतलाया गया है। जिसका अध्ययन, मनन-चिंतन एवं भली प्रकार से श्रवणकर आत्मानुभूति को समझ सकता है। आत्मा ही परमात्मरूप है। जबकि गीता आत्मा को परमात्मरूप स्वीकार कर परमात्मा में लीन होने को कहती है । जो परमात्मा में लीन हो जाता है, परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। उत्तराध्ययन में प्रथम विनयश्रुत में आत्मार्थी के लिए (मुक्ति के साधक के लिए) कर्तव्यों की ओर प्रेरित किया गया है। आणाशिकरे गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपण्णे, से विणीए ति बुच्चइ ॥ गीता और धम्मपद भी कर्त्तव्यों का बोध कराते हैं। गीता का प्रथम द्वितीय अध्याय बोध को संकेत करते हैं । जिस समय अर्जुन शोकयुक्त हो जाता है तब उसे अपनी आत्मा का बोध कराया जाता है कि हे अर्जुन ! आत्मा का कभी वध नहीं किया जा सकता है। इसलिए सम्पूर्ण भूतप्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने के योग्य नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं हैं।' आगे कर्मफल का निषेध किया है। कर्म करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है, फल की इच्छा का नहीं । कर्मफल आसक्ति का कारण होता है ।" "कम्मसंगेहि सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा ।"" अर्थात् कर्मों के सम्बन्ध से मूढ़ प्राणी दुःखी और अत्यन्त वेदना को पाते हैं । धम्मपद के पण्डितवर्ग में व्यक्ति को क्या करना चाहिए, क्या नहीं ? इसका उल्लेख बहुत ही मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया है । निधीनं व पवत्तारं यं पस्से वज्जदस्सिनं । निगवादि मेuथ तादि पण्डितं भजे ॥ तादिसं भजमानस्य सेय्यो होति न पापियो ॥१॥ अर्थात् जो निधियों के बतलाने के समान वर्जनीय बातों को बतलाने वाला है, जो निगृह्यवादी और मेधावी है - ऐसे, इस प्रकार के बुद्धिमान का साथ करना चाहिए। ऐसे मनुष्य का साथ करने वाले को पुण्य मिलता है, पाप नहीं । तथा 'धम्मपीती सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा' अर्थात् धर्म का पालन करने वाला प्रसन्नचित्त होकर सुख से सोता है । उत्तराध्ययन में धर्म के आश्रय रहने वाले को सुखदायक और महान् निर्वाण गुणों की प्राप्ति होती है । "सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं धारेज्ज निव्वाणगुणावहं महं ।” २०६६ || और कर्मों में आसक्त जीव के लिए कहा है कि जो अति आसक्त होता है वह जंगल के तालाब के ठंडे पानी में पड़े हुए और मकर द्वारा ग्रसे हुए भैंसे की तरह अकाल में ही मृत्यु पाता है ।" दुःख और दुःख के कारण- सभी जीव सुख चाहते हैं, तथा दुःख से डरते हैं। पर दुःख से बचने का उपाय नहीं जानते । इसलिए जन्मजन्मांतर से इस संसार में जन्म-मरणरूप दुःख को भोग रहे हैं। इसका मूल कारण अज्ञान दशा है । अज्ञान के कारण ही भौतिक पदार्थों की ओर सुख मानकर दौड़ता रहता है। इसकी इस अज्ञानी सोचता है कि "जमेष साँठ होक्खामि इह वाले परम्भ।" अर्थात् जो दूसरों का होगा" इस प्रकार सोचने वाले "तुति बहुसो मुढा, संसारम्मि अनंतए " अनंत संसार में ही दुःखों का अन्त करने वाली संसार की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है ।" तृष्णा का कहीं अंत नहीं । हाल होना वह मेरा भी भटकते रहते हैं उनके यदा च पञ्चति पापं अथ बालो दुक्खं निगच्छति । बालवग्ग- १०॥ अर्थात् जब पापकर्म का परिपाक होता है, तब वह मूर्ख मनुष्य दुःख को प्राप्त होता है। धम्मपद में एक उदाहरण है कि "बूंद-बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है और मनुष्य थोड़ा-थोड़ा भी संचय करते हुए पाप का घड़ा भर लेता है । तब वह पापरूप दुःख से कैसे मुक्त हो सकेगा ? जब तक बाह्य वस्तुओं के प्रति मोह रहेगा, तब तक दुःख रहेगा। गीता में लिखा है ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।५।२२ ॥ अर्थात् जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले हैं सब भोग में निःसंदेह दुःख के कारण हैं। बुद्धवग्ग' में दुःख को चार भागों में बाँट दिया है (१) दुःख (३) दुःखनिवृत्ति (२) दुःख की उत्पत्ति (४) दुःखनिवृत्ति के उपाय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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