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________________ जैन राजनीति ******** (४) भारत का सार्वभौमिक राज्य — ऋषभ के एक सौ पुत्र थे। संन्यस्त होने के पूर्व उन्होंने सभी को एकएक प्रशासनिक इकाई सौंपी। जिन्हें संन्यास मार्ग रुचिकर लगा, वे तो अपने पिता के ही साथ संन्यस्त हो गये, शेष ने अपना-अपना शासन सँभाला । ऋषभ के पुत्रों में भरत ज्येष्ठ थे । उनकी दूसरी मां के पुत्रों में बाहुबलि सबसे बड़े थे। पिता के बाद भरत के मन में यह विकल्प आया कि पिता की तरह सत्ता का केन्द्र वही है । जो उसे होना चाहिए । अन्य सभी को उसकी प्रभुसत्ता स्वीकार करनी चाहिए। २७ भरत ने अपनी इस प्रभुसत्ता को ख्यापित और संपुष्ट करने के उद्देश्य से चतुर्दिक भ्रमण किया । उनकी यह यात्रा 'दिग्विजय' मानी गयी । बाहुबलि को छोड़कर सभी ने भरत की संप्रभुता स्वीकार कर ली । बाहुबलि ने कहा'पिता ने हमें समान अधिकार और स्वातन्त्र्य दिया है। हम किसी के आधीन नहीं हो सकते।' भरत सत्ता के दर्प में था । उसने बाहुबलि को युद्ध के लिए ललकारा। तीन प्रकार के निर्णायक युद्ध हुए- जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध । बाहुबलि तीनों में विजयी हुए । सत्ता के लिए भरत हिंसा पर उतारू हो गया । उसने बाहुबलि पर चक्र फेंका। बाहुबलि उससे घायल नहीं हुए पर उनका मन घायल हो गया। उन्होंने सत्ता के लिए हिंसा के प्रतिरोध में अपना सर्वस्व छोड़ दिया और संन्यस्त हो गये । भरत चक्रवर्ती शासक बन गया। शास्त्रों में यह प्रसंग बहुत विस्तार के साथ वर्णित है।" ********** भरत बाहुबलि युद्ध, जैन राजनीति के इतिहास में सत्ता के लिए संघर्ष और संघर्ष में पराजय होने पर अनीति तथा हिंसा का आश्रय लेने की सर्वप्रथम घटना है । ऐसा प्रतीत होता है कि भरत के समय तक राजतन्त्र का पर्याप्त विकास हो चुका था । राज्य, राजा और राजनीति के स्वरूप का निर्धारण हो चुका था। आदिपुराण के ४२वें पर्व में राजनीति का जो विस्तृत वर्णन है, उसे पूर्ण रूप से भरत के युग का तो नहीं माना जा सकता, किन्तु इतना अवश्य है कि उसके आधार पर भरत की नीति का एक सामान्य चित्र अवश्य अंकित किया जा सकता है। यह राजतन्त्र दीर्घकाल तक चला । (५) जैन राजनीति और गणतन्त्र -- जैन राजनीति में 'गणतन्त्र' के उल्लेख सम्पूर्ण भारतीय राजनीति शास्त्र के इतिहास की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के युग में अर्थात् ईसा पूर्व छठी शती में वैशाली में एक समृद्ध गणतन्त्र था । पाली दीघनिकाय में इसका एक स्पष्ट चित्र उपलब्ध होता है । महात्मा बुद्ध से यह पूछा गया कि 'वैशाली पर विजय किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है ।' अत्यधिक थी । उत्तर में बुद्ध ने कहा 'जब तक इस गणतन्त्र के सदस्य सात बातों को मानते रहेंगे, तब तक वैशाली विजित नहीं हो सकती ।' वे सात बातें इस प्रकार हैं (१) सम्मति के लिए सभा में एकत्र होना । (२) एक होकर बैठना, एक होकर उठना और एक होकर करणीय कार्यों को करना । (३) अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त न मानना तथा प्राचीन वज्जि धर्म का अनुसरण करना । (४) अपने वयोवृद्धों के प्रति आदरभाव रखना । (५) स्त्री वर्ग के सम्मान की रक्षा करना । ( ६ ) अपने चैत्यों की पूजा करना । (७) महंतों के ठहरने का सुविधाजनक तथा सुरक्षित प्रबन्ध करना। Jain Education International वैशाली गणतन्त्र में वज्जियों और लिच्छवियों के नौ राज्य शामिल थे। इसको संचालन करने वाली सभा 'वज्जियान राजसंघ' कहलाती थी। चेटक इस गणतन्त्र के अध्यक्ष थे । मगध का शक्तिशाली राजतन्त्र वैशाली के सन्निकट होने के बावजूद भी वैशाली का प्रभाव और प्रतिष्ठा For Private & Personal Use Only वैशाली के अतिरिक्त उस समय कतिपय और भी गणराज्य थे । शाक्य गणराज्य के अध्यक्ष शुद्धोधन थे । इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी । मल्लों की गणराज्य की राजधानी कुशीनारा और पावा थी । कतिपय अन्य छोटेछोटे गणराज्य भी थे । www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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