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________________ जैन राजनीति डॉ. गोकुलचन्द्र जैन एम० ए०, पी-एच० डी० . प्राचीन भारतीय राजनीतिशास्त्र का जो स्वरूप जैन वाङमय में उपलब्ध होता है, उससे निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं - (१) भोगभूमि और यौगलिक व्यवस्था-मानव सभ्यता के आदिकाल में 'यौगलिक व्यवस्था' थी। एक नर और एक नारी। ऐसे अनेक युगल थे । प्रत्येक युगल नये युगल को जन्म देता और यह योगलिक-प्रक्रिया चलती जाती। वृक्षों से उनके जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती थी। ये वृक्ष 'कल्पवृक्ष' थे। भोजन, वस्त्र और आवास भिन्न-भिन्न प्रकार के कल्पवृक्षों से सम्पन्न होते। कल्पवृक्ष इतने थे कि आवश्यकता-पूर्ति के लिए संघर्ष न था । आवश्यकताएँ भी कम थीं । सब अपने में मस्त । इसीलिए शास्त्रकारों ने उस युग को 'भोगभूमि' कहा है। उस समय परिवार नहीं थे। ग्राम, नगर आदि भी न थे। तब की राजनीति, समाजनीति और धर्मनीति इतनी ही थी।' जैन साहित्य में इस 'यौगलिक व्यवस्था' का जो विस्तृत विवरण मिलता है, उसके ये सूत्र हैं। मेरी दृष्टि से शास्त्रकारों ने अपने-अपने समय तक विकसित तथा परिकल्पित सभ्यता के विवरण भी इस वर्णन के साथ जोड़कर इसे अतिरंजित और अविश्वसनीय-सा बना दिया है। इसीलिए इसका उपयोग न तो राजनीतिशास्त्र के इतिहास में किया जाता है और न ही मानव-सभ्यता के इतिहास में। इन सूत्रों को आधुनिक अनुसन्धान सन्दर्भो में व्याख्यायित करना अपेक्षित है। (२) कुलकरों की व्यवस्था नीति-युगल या 'यौगलिक व्यवस्था' के बाद जो व्यवस्था विकसित हुई, उसे शास्त्रकारों ने 'कुलकर व्यवस्था' कहा है। कई युगल साथ रहने लगे। कुल बने। सन्तति बढ़ी। कल्पवृक्षों से जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति में कमी हुई । कुलकरों ने जीवन-यात्रा को आगे बढ़ाने के नये-नये रास्ते खोजे। प्रकृति के स्वरूप को समझा। हिंसक पशुओं से रक्षा करने के उपाय निकाले। संघर्ष रोकने के लिए कल्पवृक्षों की सीमाएँ बाँधी। पशुपालन और उनका उपयोग करना आरम्भ किया । संघर्ष और अपराध के लिए दण्ड का स्वरूप-निर्धारण किया। सन्तान का पालन-पोषण आरम्भ किया । जीवन सुरक्षित हो चला । वृक्ष-पादपों और धान्यों को उपजाने का मार्ग निकाला गया। कुलकर इस व्यवस्था का केन्द्र होता था। मार्ग-दर्शन, व्यवस्था और अनुशासन की धुरी कुलकर था।' यह 'कुलकर व्यवस्था' विकसित होते-होते राजतन्त्र बन गयी। इस विकासयात्रा में हजारों-हजार वर्ष लगे। शास्त्रकारों ने 'कुलकर व्यवस्था' का विस्तृत वर्णन किया है । यौगलिक व्यवस्था की तरह यह वर्णन भी अतिरंजित और अविश्वसनीय-सा लगता है, किन्तु निःसन्देह इसमें सांस्कृतिक इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री विद्यमान है। सन्तति के जीवन का उपाय जानने के कारण 'कुलकर' को 'मनु' भी कहा गया है । कुल के रूप में संगठित होकर रहने की प्रेरणा देने के कारण ये 'कुलकर' कहलाते थे । कुल को धारण करने के कारण 'कुलधर' और युग के आदि में होने के कारण इन्हें 'युगादि पुरुष' भी कहा जाता था। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने आदिपुराण के आधार पर 'कुलकर संस्था' के निष्कर्ष इस प्रकार प्रस्तुत किये हैं यह 'कुलकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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