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________________ ३८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ + ++ + + + + + ++++++++++++++++++++++++++++++++++ POOGseand कुशल माली, अध्यात्म उपवन के - महासती श्री शीलकुवर जी किसी भी महापुरुष के सम्बन्ध में लिखना अत्यधिक रूप में परिवर्तित कर देता है वैसे ही सद्गुरुवर्य रूपी माली कठिन कार्य है, उनका व्यक्तित्व और कृतित्व इतना दिव्य ने हमारा सिंचन कर आध्यात्मिक विकास किया है। और भव्य होता है कि उसका अंकन करना कठिन ही नहीं, इस संसार में कुछ व्यक्ति जन्म से ही विशिष्ट पुरुष कठिनतर है। जैनदृष्टि से एक अणु में अनन्त धर्म है। होते हैं, कुछ व्यक्तियों पर विशिष्टता थोपी जाती है और सर्वज्ञ सर्वदर्शी अपने अलौकिक विशिष्ट ज्ञान से उन अनन्त कुछ व्यक्ति जन्म से नहीं अपितु अपने प्रबल पुरुषार्थ से धर्मों को देखते हैं पर वे भी वाणी के द्वारा उन अनन्त विशिष्ट व्यक्ति बनते हैं। सद्गुरुदेव जन्म से नहीं धर्मों का कथन नहीं कर सकते फिर मैं तो एक लघु किन्तु अपने पुरुषार्थ से विशिष्ट महापुरुष बने हैं। उन्होंने साधिका ठहरी, मैं उन विराट् गुणों का वर्णन कैसे कर गम्भीर अध्ययन किया, जप और ध्यान की उत्कृष्ट साधना सकती है यही एक समस्या है तथापि जब महापुरुषों के की। कठिन परीषहों को सहकर भारत के विविध अंचलों सद्गुणों के उत्कीर्तन का प्रसंग हो उस समय चुप रहना में परिभ्रमण किया है। वे एक मनीषी सन्त हैं। उनकी वाणी की चोरी है और न लिखना कलम का अपराध है मनीषा ने अनेक मनीषियों का निर्माण किया है अपनी उससे मुक्त होने के लिए ही यह मेरा नम्र प्रयास है। प्रकृष्ट प्रतिभा से जिन तत्त्वों को सरजा है वे प्रत्येक उपाध्याय राजस्थान केसरी अध्यात्मयोगी श्रद्धय चिन्तक को सृजन का अभिनव संकेत दे रहे हैं। पुष्कर मुनिजी महाराज हमारे आराध्यदेव हैं । आराध्यदेव सदा अर्चना के लिए होते हैं, चर्चा के लिए नहीं । उनके संस्कृत साहित्य के महान् आचार्य ने "प्रतिक्षणं यन्नश्री चरणों में सदा श्रद्धा के सुमन ही समर्पित किये जाते हैं, वतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः" लिखा है कि वही तर्क के नुकीले कांटे नहीं। रमणीय है, जो नित-नया है प्राणवान है। श्रद्धय सद्गुरुवर्य मेरा परम सौभाग्य रहा कि सद्गुरुदेव को प्रथम बोध ने अपने जीवन के उनसित्तर वसन्त पार किये हैं तथापि प्रदान करने वाली सद्गुरुणीजी श्री धूलकुवरजी महाराज उनके अन्तर्मानस में आज भी ऋतुराज वसन्त की सुन्दरता, थीं और उन्हीं से मुझे भी प्रथम बोध प्राप्त हुआ था। मैंने सरसता के संदर्शन होते हैं। उनमें प्रतिपल-प्रतिक्षण अपनी मातेश्वरी स्नेहमूर्ति शम्भूकुवरजी के साथ सद्- अभिनव चेतना और कमनीय कल्पना के सुगन्धित सुमन गुरुणीजी के श्री चरणों में आहती दीक्षा ग्रहण की तो आप खिलते रहते हैं। अतीत के प्रति जहाँ गहरी आस्था होने श्री ने मेरे से एक वर्ष पूर्व सद्गुरुदेव महास्थविर तारा- पर भी भविष्य के सुनहरे स्वप्न भी संजोते रहते हैं । चन्द जी महाराज के पास दीक्षा ली थी। महासती निराशा की काली-कजराली निशा उनके पास कभी भी श्री धूलकुवर जी महाराज गुरुदेव श्री ताराचन्द जी फटकती ही नहीं है। महाराज की मातेश्वरी ज्ञानकुवर जी महाराज के गुरु- सद्गुरुदेव सरोवर नहीं अपितु गंगा की प्रवहमान बहिनों के परिवार में से थीं, इस तरह आसश्री के साथ निर्मल धारा है, जो निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती मेरा शिष्या-परिवार में भी बहुत ही निकट का सम्बन्ध रहती है। विघ्न और बाधाओं की चट्टानों को चीरते हुए रहा। आगे बढ़ना उनके जीवन का संलक्ष्य है। जड़ता और जैसे एक कुशल माली नन्हे-नन्हे पौधों को जल प्रदान स्थिति-पालकता उन्हें पसन्द नहीं है। विकट से विकट कर और रात-दिन उनका संरक्षण कर विशाल वृक्षों के परिस्थितियां भी उनके लिए अभिशाप नहीं अपितु वरदान olo Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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