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________________ जैन रामकथा की पौराणिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि ६७३ देश देते हुए द्वादश अनुप्रेक्षाओं का विस्तारपूर्वक उल्लेख करता है । जनदर्शन में इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं का महत्वपूर्ण स्थान है । हनुमान ने उनका विवरण प्रस्तुत करते हुए रावण से कहा (पउमचरिउ, संधि ४४)-इस अनित्य संसार में सांसारिक व्यक्ति अशरण होता है, वह असहाय है। उसके अनुसार जीव वस्तुतः निराधार, अशरण है। वह अपने पाप-कर्मों से आच्छन्न होकर अकेला ही उनके फलों को भोगता रहता है । उसके साथ उसके किए हुए सुकृत और दुष्कृत रहते हैं । वस्तुतः शरीर से पृथक् रहने पर भी जीव को उस घिनौने एवं अपवित्र शरीर के प्रति और उसके द्वारा सांसारिक भोग-विलास के प्रति बहुत आसक्ति होती है। (कहना न होगा कि रावण इसका मूर्तिमान उदाहरण है ।) जीव असंख्यात हैं । उसकी चार गतियाँ हैं-देव, नरक, तिर्यंच, मनुष्य । जीव नित्य भिन्न-भिन्न रूप धारण करता हुआ मारता है, पिटता है, मरता है, रोता है, खाता है और खाया जाता है । कहा जा चुका है कि जीव के विशिष्ट जन्म के सन्दर्भ में पूर्वजन्म होते हैं, परवर्ती जन्म भी होते हैं । जैन रामायण में उनके रचनाकारों ने राम, लक्ष्मण, सीता, रावण, जटायु, आदि के पूर्वमवों का वर्णन किया है। उन्होंने भामण्डल, लक्ष्मण, रावण आदि के परवर्ती भवों का भी चित्रण किया है। जन्म और मृत्यु के सन्दर्भ में कहना होगा कि जीव के जीवत्व रूप भाव का नाश कभी भी नहीं होता। अर्थात् मृत्यु शरीर की होती है, न कि जीव की । स्वयम्मु ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जीव कलेवर को धारण करता है और उसे त्याग देता है। (संधि ५४,६ और १२) । वस्तुतः प्रत्येक जीव में स्वभाव से अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तसामर्थ्य आदि गुण रहते हैं, परन्तु आवरणीय कर्मों के प्रभाव से उनकी अभिव्यक्ति नहीं होती। जीव कर्म से आबद्ध है, फिर भी उससे छुटकारा प्राप्त करके वह मुक्त हो सकता है । मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता के अनुसार जीव के दो भेद हैं-भव्य और अभव्य । जो तपस्या एवं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र द्वारा सिद्ध-पद प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं, वे 'भव्य' जीव कहलाते हैं । जो इसके विपरीत हैं, वे 'अभव्य' जीव हैं । जैन रामकथा में भरत भव्य या आसन्न भव्य है, उसे सांसारिक जीवन में कोई रुचि नहीं है। उसकी इस विरक्ति को देखकर कैकेयी चिन्तित है, और उसे राजकाज में उलझाये रखने के हेतु वह दशरथ से उसके लिए राज्य मांगती है । ये भव्य जीव यथाकाल दीक्षा लेते हैं और मोक्ष-लाम करते हैं । राम भी मोक्ष-लाभ करने के हेतु ही उत्पन्न हुए हैं। दूसरी और रावण, लक्ष्मण दीक्षा ग्रहण नहीं करते। मुनि राम के कथन के अनुसार अनेकानेक जन्मों के पश्चात ये संसारी जीव मोक्ष लाभ करेंगे। इसका यह मतलब हुआ कि राम, भरत, हनुमान आदि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करते हुए मोक्ष जाने की शक्ति प्राप्त करके उत्पन्न हुए हैं। (ख) परमात्मा : जैनदर्शन के अनुसार आत्मा के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। कर्म-फलस्वरूप अज्ञान से शरीरादि बाह्य पदार्थों में आसक्त तथा इन्द्रियों के विषयों में निमग्न जीव बहिरात्मा कहा जाता है। इस दृष्टि से चन्द्रनखा (शूर्पणखा), माया-सुग्रीव बहिरात्मा हैं, रावण भी अधिकांशतः बहिरात्मा है। जिसकी दृष्टि बाह्य पदार्थों से हटकर अपनी आत्मा की ओर उन्मुख होती है और स्व-पर का विवेक होने से जो लौकिक कार्यों में अनासक्त और आत्मिक कार्यों में सावधान होता है, उसे अन्तरात्मा कहते हैं । दशरथ, राम, हनुमान आदि अपने जीवन के उत्तरकाल में इस प्रकार के अन्तरात्मा हो गए । घरबार आदि का परित्याग करके साधु-जीवन को अंगीकार करते हुए जो आत्मस्वरूप की साधना में तत्पर हो जाते हैं, वे उत्तम अन्तरात्मा है। इस दृष्टि से दशरथ, राम, सीता, भरत, हनुमान, बाली आदि अन्त में उत्तम अन्तरात्मा हो गए। जो उत्तम अन्तरात्मा की सर्वोच्च दशा में पहुंच कर अपने आन्तरिक विकारों का अभाव कर परम कैवल्य को प्राप्त हो जाता है, उसे परमात्मा कहते हैं । इस दृष्टि से मुनि कुलभूषण, अप्रमेयबल परमात्मा हैं, राम भी अन्त में मुनिधर्म स्वीकार करके केवलज्ञान का उपार्जन करने में समर्थ हो गए है । अतः राम अन्त में परमात्मा हो गए हैं। जनदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह प्रत्येक आत्मा को यह विश्वास दिलाता है कि वह अपना विकास करते-करते स्वयं परमात्मा बन सकता है। राम उसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। (ग) मोक्ष : जैन-दर्शन के अनुसार जीव के सम्पूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने को 'मोक्ष' कहते हैं । जिस मार्ग से कर्म का 'आस्रव' है, उसका 'संवर' या निरोध करते हुए कर्मों की 'निर्जरा' (विनाश) करने से जीव को मोक्ष लाभ हो जाता है । इस स्थिति में आत्मा का विनाश या किसी अन्य परमात्मा में विलीन होना अपेक्षित नहीं है। मोक्ष को प्राप्त हुआ जीव निर्मल, निश्चल और अनन्तचैतन्यमय हो जाता है। राम आदि इसी प्रकार के जीव हो गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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