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________________ ६५४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्य: षष्ठम खण्ड ज्ञानी ऐसी होली मचाई। राग कियो विपरीत विपन घर, कुमति कुसौति नहाई । धार दिगम्बर कीन्ह सु संवर निज-पर भेद लखाई। घात विषयनि की बचाई ॥ज्ञानी ऐसी०॥ सुमति सखा भजि ध्यानभेद सम, तन में तान उड़ाई। कुम्भक ताल मृदंग सौं पूरक रेचकबीन बजाई। लगन अनुभव सों लगाई ॥ज्ञानी ऐसी०॥ कर्म बलीता रूपनाम अरि वेद सुइन्द्रि गनाई। वे तप अग्नि भस्म करि तिनको, धूल अघाति उड़ाई। करी शिव तिय की मिलाई ॥ज्ञानी०॥ ज्ञान को फाग भाग वश आ4 लाख करो चतुराई । सो गुरु दीनदयाल कृपाकरि दौलत तोहि बताई। नहीं चित्त से विसराई ॥ज्ञानी०॥८ इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी के जैन कवियों द्वारा लिखित विवाह, फागु और होलियाँ अध्यात्मरस से सिक्त ऐसी दार्शनिक कृतियाँ हैं जिनमें एक ओर उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, प्रतीक आदि के माध्यम से जैन दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है वहीं दूसरी और तत्कालीन परम्पराओं का भी सुन्दर चित्रण किया गया है। दोनों के समन्वित रूप से साहित्य की छटा कुछ अनुपम-सी प्रतीत होती है । साधक की रहस्य भावनाओं की अभिव्यक्ति का यह एक सुन्दर माध्यम कहा जा सकता है। विशुद्धावस्था की प्राप्ति, चिदानन्द चैतन्यरस का पान परम सुख का अनुभव तथा रहस्य की उपलब्धि का भी परिपूर्ण ज्ञान इन विधाओं से झलकता है। जैन साधकों की रहस्य-साधना में भक्ति, योग, सहज और प्रेमभावना का समन्वय हुआ है । इन सभी मार्गों का अवलम्बन लेकर साधक अपने परम लक्ष्य पर पहुंचा है और परम सत्य के दर्शन किये हैं । उसके और परमात्मा के बीच की खाई पट गई है। दोनों मिलकर वैसे ही एकाकार और समरस हो गये जैसे जल और तरंग । यह एकाकारता भक्त साधक के सहज स्वरूप का परिणाम है जिससे उसका भावभीना हृदय सुख-सागर में लहराता रहता है और अनिर्वचनीय आनन्द का उपभोग करता रहता है। उपयुक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिन्दी जैन साहित्य के मध्यकाल में कवियों ने अध्यात्म और साधना को लोकभाषा में उतारने का अनूठा प्रयत्न किया है और इस प्रयल में वे सफल भी हुए हैं। इन रचनाओं से यह भी ज्ञात होता है कि योग-साधना के क्षेत्र में इस समय तक किन-किन नये साधनों का प्रयोग होने लगा था। इसे हम योग-साधना का विकास भी कह सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हिन्दी जैन काव्यधारा का मूल्यांकन करना अपेक्षित है। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल१ बनारसी विलास, जिनसहस्रनाम २ इस विषय पर विस्तार से हमारा लेख देखिए-"जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद" -आनन्दऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ३३०-३५३ ३ दोहापाहुड, १६८. ४ योगसार, पृ० ३८४ ५ पाहुडदोहा, पृ०६ ६ बनारसी विलास, प्रश्नोत्तरमाला १२, पृ० १८३ ७ मनराम विलास ७२-७३, ठोलियों का दि० जैन मन्दिर, जयपुर, वेष्टन नं० ३९५ ८ दौलत जैन पद संग्रह, ६५, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ६ बनारसी विलास, अध्यात्मपद पंक्ति, २१, पृ. २३६६ १. हिन्दी पद संग्रह, पृ० ११४ ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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