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________________ हिन्दी जैन- काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद ६४७ अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। आत्मा-परमात्मा का प्रिय प्रेमी के रूप में चित्रण किया गया है । श्री पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव का यह कथन इस सन्दर्भ में उपयुक्त है कि लोक में आनन्दशक्ति का सबसे अधिक स्फुरण दाम्पत्य संयोग में होता, ऐसे संयोग में जिनमें दो की पृथक् सत्ता कुछ समय के लिए एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती है । आनन्दस्वरूप विश्वसत्ता के साक्षात्कार का आनन्द इसीकारण अनायास लौकिक दाम्पत्य प्रेम के रूपकों मे प्रकट हो जाता है ।" अलोकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षण होती है कि द्वधभाव ही समाप्त हो जाता है । मध्यकालीन कवियों ने आध्यात्मिक प्रेम के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विवाहों का चित्रण किया है। प्रायः इन्हें विवाहला, विवाह, विवाहलय और विवाहलों आदि नामों से जाना जा सकता है। विवाह भी दो के मिलते हैं। रहस्यसाधकों की रहस्यभावना से जिन विवाहों का सम्बन्ध है उनमें जनप्रभरि का अन्तरंग विवाह अति मनोरम है। सुमति और चेतन प्रिय प्रेमी रूप हैं। अजयराज पाटणी ने शिवरमणी विवाह रचा जिसमें आत्मा वर (शिव) और मुक्ति वधु ( रमणी) है। आत्मा मुक्तिवधु के साथ विवाह करती है। 3 बनारसीदास ने भगवान शांतिनाथ का शिवरमणी से परिणय रचाया । परिणय होने के पूर्व ही शिवरमणी की उत्सुकता का चित्रण देखिये, कितना अनूठा है—री सखि, आज मेरे सौभाग्य का दिन है कि जब मेरा प्रिय से विवाह होने वाला है पर दुःख यह है कि वह अभी तक नहीं आया । मेरा प्रिय सुख-कन्द है, उनका शरीर चन्द्र के समान है इसलिए मेरा मन आनन्द सागर में लहरें ले रहा है। मेरे नेत्र चकोर-सुख का अनुभव कर रहे हैं, जग में उनकी सुहाबनी ज्योति फैली है, कीर्ति भी छायी है, वह ज्योति दुःख रूप अन्धकार दूर करने वाली है, वाणी से अमृत झरता है । मुझे सौभाग्य से ऐसा पति मिल गया । 3 एक अन्य कृति अध्यात्मगीत में बनारसीदास को मन का प्यारा परमात्मा रूप प्रिय मिल जाता है । अतः उनकी आत्मा अपने प्रिय (परमात्मा) से मिलने के लिए उत्सुक है। वह अपने प्रिय के वियोग में ऐसी तड़प रही है। जैसे जल के बिना मछली तड़पती है । मन में पति से मिलने की तीव्र उत्कण्ठा बढ़ती ही जाती है तब वह अपनी समता नाम की सखी से अपने मन में उठे भावों को व्यक्त करती है, यदि मुझे प्रिय के दर्शन हो जायें तो मैं उसी तरह मग्न हो जाऊँगी जिस तरह दरिया में बूंद समा जाती है । मैं अहंभाव को तजकर प्रिय से मिल जाऊँगी। जैसे ओला गलकर पानी में मिल जाता है वैसे ही मैं अपने को प्रिय में लीन कर दूंगी।" आखिरकार उसका प्रिय उसके अन्तर्मन में ही मिल गया और वह उससे मिलकर एकाकार हो गई। पहले उसके मन में जो दुविधाभाव था वह भी दूर हो गया । दुविधाभाव का नाश होने पर उसे ज्ञान होता है कि वह और उसका प्रियतम एक ही है । कवि ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों से इस एकत्वभाव को अभिव्यक्त किया है। वह और उसके प्रिय, दोनों की— " जो पिय जासि जानि पिय मोरे घट, मैं पिय मो करता मैं पिय सुख सागर मैं पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर में केवलबानि ॥ २३॥ जहें पिय तहँ मैं पिय के संग ज्यों शशि हरि में ज्योति अभंग ॥ २४ ॥ Jain Education International सम सोइ । जानहि जात मिले सब कोइ ॥ १८ ॥ पिय मांहि । जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहि ॥ १६ ॥ करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ॥२०॥ सुखसींव । पिय शिव मन्दिर में शिवनींव ॥ २१ ॥ नाम । पिय माधव मो कमला नाम ||२२|| कविवर बनारसीदास ने सुमति और चेतन के बीच अद्वैतभाव की स्थापना करते हुए रहस्यभावना की साधना की है। चेतन को देखते ही सुमति कह उठती है—रे चेतन, तुमको निहारते ही मेरे मन से परायेपन की गागर दूर हो गया। हे प्रिय, तुम्हारा वहाँ हमने तुम्हें देखा कि तुम स्मरण आते ही मैं राजपथ शरीर की नगरी के अन्त फूट गयी। दुविधा का अंचल फट गया और शर्म का भाव को छोड़कर भयावह जंगल में तुम्हें खोजने निकल पड़ी माग में अनन्त शक्ति सम्पन्न होते हुए भी कर्मों के लेप में लिपटे हुए हो। अब तुम्हें मोह निद्रा को भंगकर और रागद्वेष को चूरकर परमार्थ प्राप्त करना चाहिए बालम तुहुँ तन चितवन गागरि अंचरा गो फहराय सरम गं हूँ तिक रहूँ जे सजनी रजनी घर करकेउ न जाने चहुदिसि चोर ॥ बालम ॥२॥ फूटि । छूटि ॥ बालम ॥१॥ घोर । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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