SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 688
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी जन-काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद ६४३ . हिन्दी जैन-काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद * डा० श्रीमती पुष्पलता जैन एम. ए., (हिन्दी, भाषा विज्ञान) पी-एच. डी. नागपुर व्यक्ति का विशुद्धतम साध्य सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हुआ करता है। इस साध्य की प्राप्ति के लिए वह अपने कर्मों की निर्जरा करने का सतत प्रयत्न करता है। प्रयत्न का यही रूप योगसाधना है और उसका भावात्मक पक्ष रहस्य भावना है। यहाँ हम रहस्यभावना अथवा रहस्यवाद पर चर्चा नहीं करेंगे।' मात्र इतना कहना चाहेंगे कि अध्यात्मवाद की चरम अवस्था को प्राप्त करने वाला साधक रहस्यमावना के मिथ्यात्व, मोह-माया आदि तत्त्वों को समूल नष्ट करने का अथक प्रयत्न करता है। रहस्यभावना के बाधक तत्त्वों को दूर कर साधक, साधक-तत्त्वों को प्राप्त करने में जुट जाता है और उनमें रमण करते हुए एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जब उसके मन में संसार से वितृष्णा और वैराग्य का भाव जाग्रत हो जाता है । फलतः वह सद्गुरु की प्रेरणा से आत्मा की विशुद्धावस्था में पहुंच जाता है । इस अवस्था में साधक की आत्मा, परमात्मा से साक्षात्कार करने के लिए आतुर हो उठती है और उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति के लिए वह रूपक, आध्यात्मिक विवाह, आध्यात्मिक होली, फागु आदि साहित्यिक विधाओं का अवलम्बन खोज लेती है। मध्यकालीन हिन्दी जैन-काव्यों में इन विधाओं का पर्याप्त उपयोग हुआ है। उनमें साधनात्मक और भावनात्मक दोनों प्रकार की रहस्य साधनाओं के दर्शन होते हैं। साधना की चिरन्तनता, मार्मिकता, संवेदनशीलता, स्वसंवेदनता, भेद-विज्ञान आदि तत्त्वों ने साधक को निरंजन, निराकार, परमवीतराग आदि रूपों में पगे हुए साध्य को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है और चिदानन्द, चैतन्यमय, ब्रह्मानन्द रस का खूब पान कराया है। साथ ही परमात्मा को अलख, अगम, निराकार, अध्यात्म-गम्य, परब्रह्म, ज्ञानमय, चिद्रूप, निरन्जन, अनक्षर, अशरीरी, गुरु गुसाईं, अगूढ आदि शब्दों का प्रयोग कर उसे रहस्यमय बना दिया है। दाम्पत्यमूलक प्रेम का भी सरस प्रवाह उसकी अभिव्यक्ति के निर्झर से झरता हुआ दिखाई देता है। इन सब तत्त्वों के मिलने से जैन-साधकों का रहस्य परमरहस्य बन जाता है। प्रस्तुत निबन्ध में हमने साधनात्मक पक्ष में सहज-योग साधना और भावनात्मक पक्ष में दाम्पत्यमूलक आध्यात्मिक प्रेम, विवाहलो, होली, फागु आदि का उल्लेख किया है। इन दोनों ही प्रकारों से साधक अपने परम रहस्य को प्राप्त करता है। योग-साधना भारतीय साधनाओं का अभिन्न अंग है । इसमें साधारणत: मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया का समावेश किया गया है । उत्तरकाल में यह परम्परा हठयोग की प्रस्थापना में मूलकारण रही। इसमें सूर्य और चन्द्र के योग से श्वासोच्छ्वास का निरोध किया जाता है अथवा सूर्य (इड़ा नाड़ी) और चन्द्र (पिंगला) को रोककर सुषुम्ना-मार्ग से प्राणवायु का संचार किया जाता है। उत्तरकालीन वैदिक और बौद्ध सम्प्रदायों में हठयोग साधना का बहुत प्रचार हुआ। जैन साधना में मुनि योगीन्दु, मुनि रामसिंह और सन्त आनन्दघन में इसके प्रारम्भिक तत्त्व अवश्य मिलते हैं।' पर उसका वह वीभत्स रूप नहीं मिलता जो उत्तरकालीन वैदिक अथवा बौद्ध सम्प्रदाय में मिलता रहा है। जैन-साधना का हठयोग जैनधर्म के मूल भाव से पतित नहीं हो सका। उसे जैनाचार्यों ने अपने रंग में रंगकर अन्तर्भूत कर लिया । योगसाधना सम्बन्धी प्रचुर साहित्य भी जैन साधकों ने लिखा है। उसमें योग दृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशति, योगशास्त्र आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy