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________________ ६०८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड जागृति को सन्देश देता है-कि क्यों सोये पड़े हो ! उठो ! जागो ! और अपने कर्तव्य को पहचानो ! कवि के शब्दों में ही देखिए-जागृति का सन्देश "कुण जाणे काल का दिन की या दिन की, तन की, धन की रे.... एक दिन में देव निपजाई या द्वारापुरी कंचन की रे........" अभिमान का काला नाग जिसे डस जाता है, वह स्व-रूप को भूल जाता है और पर-रूप में रमण करने लगता है, कवि उसे फटकारता हुआ कह रहा है "मिजाजी ढोला, टेढ़ा क्यों चालो छकिया मान में मदिरा का झोला, जैसे तू आयी रे तोफान में ॥ टेढ़ी पगड़ी बंट के जकड़ी ढके कान एक आँख । - पटा बंक सा बिच्छु डङ्क सा रहा दर्पण में मुख झांक ॥ आगमिक तात्त्विक बातों को भी कवि ने अत्यधिक सरल भाषा में संगीत के रूप में प्रस्तुत किया है । कवि गुणस्थानों की मार्गणा के सम्बन्ध में चिन्तन करता हुआ कहता है "इण पर जीवडो रे गुणठणे फिरे ।। प्रथम गुणस्थाने रे मारग चार कह्या, __ तीन चार पंच सातो रे । गुण ठाणे दूजे रे मारग एक छ, पडतां पैले मिथ्यातो रे ॥" द्रव्य-नौकरी की तरह कवि भाव-नौकरी का वर्णन करता है-सम्यक्दृष्टि जीव से लेकर जिनेश्वरदेव तक नौकरी का चित्रण करते हुए कवि लिखता है "काल अनन्ता हो गया सरे, कर्जा बढ़ा अपार । खर्चा को लेखो नहीं सरे, नफा न दीसे लगार रे॥ अति मेंगाई घर में तंगाई, अर्ज करू तुम साथ। दरबार सं कुण मिलण देवे, बात मुसुद्दी हाथ ॥" लौकिक त्यौहार, शीतला का, कवि आध्यात्मिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण करता है। शीतला का शीतल पदार्थों से पूजन होता है तो कवि क्षमा रूपी माता शीतला का पूजन इस प्रकार करता है 'सम्यक्त रंग की मेंहदी है राची, थारा रूप तणो नहीं पार । मद्दव रूप खर की असवारी, खूब किया सिंणगार है । म्हारी भाव भवानी क्षम्या माता ए पूजू शीतला । दान शीयल तप भावना सरे, देव गुरु ने धर्म । शील सातम ये सातों पूजियां, तूटे आठों ही कर्म है । म्हारी भाव भवानी क्षम्या माता ए पूजूं शीतला ।। स्थानाङ्गसूत्र में वैराग्य-उत्पत्ति के दस कारण बताये हैं । कवि ने उसी बात को कविता की भाषा में इस रूप में रखा है 'सुणो सुणो नर नार, वैराग उपजे जीव ने दश परकार । ज्यारो घणो अधिकार, शास्त्र में ज्यारो है बहु विस्तार ।। पहले बोले साधुजी रो दर्शन होय । मृगापुत्र नी परे...."लीजोजी जोय ।। इसी तरह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के आधार से आपने 'मरत पच्चीसी' का निर्माण किया जिसमें संक्षेप में सम्राट भरत के षट्खण्ड के दिग्विजय का वर्णन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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