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________________ ***** 5 पाश्चात्य विद्वानों का जनविद्या को योगदान ५७३ पाश्चात्य विद्वानों का जनविद्या को योगदान Jain Education International *************** आधुनिक युग में प्राच्यविद्याओं का विदेशों में अध्ययन १७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ । संस्कृत भाषा एवं साहित्य के बाद पालि एवं बौद्धधर्म का अध्ययन विदेशों में विद्वानों द्वारा किया गया । १८२६ ई० में बनफ तथा लास्सन का संयुक्त रूप से 'ऐसे सुर ला पालि' निबन्ध प्रकाशित हुआ, जिसमें बुद्ध की मूल शिक्षाओं के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अनुसन्धान के क्षेत्र में १८६९ ई० तक जो ग्रन्य प्रकाश में आये,' उनमें प्राकृत व अपभ्रंश भाषा पर कोई विचार नहीं किया गया। क्योंकि तब तक इन भाषाओं का साहित्य विदेशी विद्वानों की दृष्टि में नहीं आया था । किन्तु १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राकृत भाषा का अध्ययन भी विदेशी विद्वानों द्वारा प्रारम्भ हो गया । फ्रान्सीसी विद्वान् चार्ल्स विल्किन्स ने 'अभिज्ञान शाकुन्तल' के अध्ययन के साथ प्राकृत का उल्लेख किया। हेनरी टामस कोलब्रुक ने प्राकृत भाषा एवं जैनधर्म के सम्बन्ध में कुछ निबन्ध लिखे । तथा १८६७ ई० में लन्दन के जे० जे० फलींग ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'शार्ट स्टडीज इन ए साइन्स आव कम्पेरेटिव रिलीजन्स' में शिलालेखों में उत्कीर्ण प्राकृत भाषा का उल्लेख किया है । इस प्रकार प्राकृत भाषा एवं जैनधर्म के अध्ययन के प्रति पाश्चात्य विद्वानों ने रुचि लेना प्रारम्भ किया, जो आगामी अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका थी । ★ डॉ० प्रेमसुमन जैन जनविद्या के खोजी विद्वान पाश्चात्य विद्वानों के लिए जैनविद्या के अध्ययन की सामग्री जुटाने वाले प्रमुख विद्वान् डा० जे० जी० बूलर थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज में व्यतीत किया । १८६६ ई० के लगभग उन्होंने पाँच सौ जैन ग्रन्थ भारत से बर्लिन पुस्तकालय के लिए भेजे थे। जैन ग्रन्थों के अध्ययन के आधार पर डा० बूलर ने १८८७ ई० में जैनधर्म पर जर्मन भाषा में एक पुस्तक लिखी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद १९०३ ई० में लन्दन से 'द इंडियन सेक्ट आफ द जैन्स' के नाम से प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक में डा० वूलर ने कहा है कि जैनधर्म भारत के बाहर अन्य देशों में भी फैला है तथा उसका उद्देश्य मनुष्य को सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त करना रहा है । इस समय के जैनविद्या के दूसरे महत्वपूर्ण खोजी विद्वान् अल्बर्ट वेवर थे। उन्होंने डा० दूसर द्वारा जर्मनी को प्रेषित जैन ग्रन्थों का अनुशीलन कर जैन साहित्य पर महत्वपूर्ण कार्य किया है । १८८२ ई० में प्रकाशित उनका शोधपूर्ण ग्रन्थ Indischen Studien (Indian Literature) जैनविद्या पर विशेष प्रकाश डालता है । इन दोनों विद्वानों के प्रयत्नों से विदेशों में प्राकृत भाषा के अध्ययन को पर्याप्त गति मिली है । 2 For Private & Personal Use Only प्राकृत भाषा का अध्ययन पाश्चात्य विद्वानों ने जैन विद्या के अध्ययन का प्रारम्भ प्राकृत भाषा के तुलनात्मक अध्ययन से किया । कुछ विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन करते हुए प्राकृत भाषा का अनुशीलन किया तो कुछ विद्वानों ने स्वतन्त्र रूप से प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में अपनी शोध प्रस्तुत की । यह शोध - सामग्री निबन्धों और स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में प्राप्त होती है । पाश्चात्य विद्वानों के प्राकृत भाषा सम्बन्धी सभी लेखों और ग्रन्थों का मूल्यांकन प्रस्तुत करना यहाँ सम्भव नहीं है । अतः १६वीं एवं २०वीं शताब्दी में प्राकृत भाषा सम्बन्धी हुए अध्ययन का संक्षिप्त विवरण कालक्रम से इस प्रकार रखा जा सकता है । O. www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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