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________________ ० ० Jain Education International ५४८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड अतिविसंविभाग के पाँच अतिचार है, वे ये हैं (१) सचित्त निक्षेप - दान योग्य अचित्त आहार में सचित्त वस्तु मिलाना । (२) सचितपिधान - अचित्त वस्तु को सचित्त से ढक रखना । (३) कालातिक्रम- -समय पर दान न देना, असमय में दान की भावना करना । (४) परव्यपदेश — देने की भावना न होने से अपनी वस्तु को दूसरे की कहना अथवा दूसरे की वस्तु को अपनी कहना | (५) मात्सर्य - ईर्ष्या व अहंकार की भावना से दान देना । इस प्रकार गृहस्थधर्म के द्वादश व्रतों के कुल साठ अतिचारों का वर्णन किया है। इनके अतिरिक्त सम्यक्त्व के पाँच अतिचार एवं संलेखना के पाँच अतिचार और हैं उन सभी को सम्मिलित करने पर श्रमणोपासक के जीवन में सत्तर नियमों की एक व्यवस्थित सूची हो जाती है जो कि उसके जीवन उन्नयन के विशिष्ट सोपान हैं। उसमें सम्यक्त्व के पाँच अतिचार निम्न हैं- (१) शंका - आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, मोक्ष-संसार इत्यादि सर्वज्ञकथित तत्वों में सन्देह रखना (२) कांक्षा- अपने शुभकृत्य के फल स्वर्गादि की आकांक्षा रखना (३) वितिगिच्छा - सर्वज्ञकथित श्रमणादि के आचार से घृणा करना । ( ४ ) पर-पाखण्ड प्रशंसा - जिनोक्त सिद्धान्त से विपरीत तत्त्वों की प्रशंसा करना (५) पर-पाखण्ड संस्तव -- मिथ्यावाद का परिचय | अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना व उसके अतिचार ++ जीवन के अन्तिम समय में एक विशेष प्रकार की साधना की जाती है उसे अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना कहते हैं । मरते समय अज्ञानी जीव शारीरिक-मानसिक वेदना से छटपटाते रहते हैं। इस वेदना का एक प्रमुख कारण है, वह है - आसक्ति अर्थात् आत्मा की ममता तन, धन या परिवार के प्रति होती है और जब उनसे वियोग होता है तो आत्मा मानसिक वेदना से दुःखी होता है । किन्तु संलेखनाव्रत में इस दुःख के समूल नाश का उपाय किया जाता है। क्योंकि आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात होने पर देहादि की आसक्ति कम हो जाती है और मानव हँसते-हँसते मृत्यु का स्वागत कर सकता है । इसीलिए संलेखना का अपर नाम समाधिमरण एवं पण्डितमरण भी है। इस व्रत के पांच अतिचार हैं (१) इहलोकाशंसाप्रयोग—इस लोक में राजा, श्रेष्ठि इत्यादि पद, सत्ता की आकांक्षा रखना । (२) परलोकाशंसाप्रयोग-संलेखना का तप कर उसके फलस्वरूप परलोक में स्वर्ग, देव, इन्द्र आदि भोगोपभोगों को पाने की इच्छा करना । (३) जीविताशंसाप्रयोग - बहुत समय जीवित रहने की कामना । (४) मरणाशंसाप्रयोग - रोगादि कष्ट से छूटने के लिए शीघ्र मरने की इच्छा । (५) काम भोगाशंसाप्रयोग — इन्द्रिय विषयों की तृष्णा रखना । श्रमणोपासक की चार विश्रान्तियाँ स्थानांगसूत्र में श्रमणोपासक के लिए चार विश्राम बताये गये हैं ।" मारवाहक जैसे वस्त्र, काष्ट, सुवर्ण रत्नादि किसी पदार्थ के भार को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाता है तो मार्ग में चार विश्राम लेता है । जैसे—मार को एक कंधे से दूसरे कंधे पर रखना प्रथम विश्राम, भार को किसी एक स्थान पर रखकर मलमूत्रादि बाधा दूर करना यह द्वितीय विश्राम, नागकुमार सुपर्णकुमार आदि देवस्थान के आवास में अथवा विश्रामगृह या किसी भी धर्मशाला में उपवनादि में ठहरकर भोजनपान करना, घड़ी, प्रहर अथवा रात्रि विश्राम लेना यह तृतीय विश्राम है। मार को यथास्थान पहुंचाकर मार से सर्वथा निवृत्त होना यह चतुर्थ विश्राम है श्रमणोपासक भी ऐसे सांसारिक कृत्यों को अर्थात् तन, धन, परिवार के लिए होने वाले पाप कृत्यों को एक भार बोझ रूप समझता हैं । अतः उसे दूर करने एवं मुक्ति पाने के लिए वह श्रावकधर्म को विश्राम समझता है। भारवाहक जैसे ही श्रावक जब पाँच अणुव्रतरूप शीलव्रत, तीन गुणवत चार शिक्षाव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधादि व्रत ग्रहण करता है, यह प्रथम विश्राम है। जब वह सामायिक एवं देशावकासिक व्रत को सम्यग्तया पालता है तो यह द्वितीय विश्राम है। जब वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा आदि तिथियों में प्रतिपूर्ण पौषव्रत का पालन करता है तब वह तृतीय विश्राम लेता है । जब वह मृत्यु के अन्तिम समय में अपश्चिम संलेखना को धारण कर लेता है, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर देता है एवं काल की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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