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________________ ५४६ श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड (४) दुष्पक्वाहार-अर्ध पक्व वस्तु का आहार करना । (५) तुच्छोषधिभक्षण-जो वस्तु अधिक मात्रा में फैकने योग्य हो और अल्पमात्रा में खाने योग्य हो ऐसी ___ वस्तु खाना। कर्म से पन्द्रह कर्मादान के द्वारा व्यापार करना श्रमणोपासकों के लिए अतिचार स्वरूप है, वह निम्न है(१) अंगारकर्म-अग्नि सम्बन्धी व्यापार जैसे कोयले बनाना आदि । (२) वनकर्म-वनस्पति सम्बन्धी व्यापार जैसे वृक्ष काटना आदि । (३) शाटककर्म-वाहन का व्यापार जैसे मोटर, तांगा आदि बनाना । (४) भाटकर्म-वाहन आदि किराये देना।। (५) स्फोटकर्म-भूमि फोड़ने का व्यापार, जैसे खाने खुदवाना, नहरें बनाना, मकान बनाना आदि सम्बन्धित व्यापार। (६) दन्तवाणिज्य-हाथी दाँत आदि का व्यापार । (७) लाक्षावाणिज्य-लाख आदि का व्यापार । (८) रसवाणिज्य–मदिरा, गीला गुड़ आदि का व्यापार । (8) केशवाणिज्य-बालों व बालवाले प्राणियों का व्यापार । (१०) विषवाणिज्य-जहरीले पदार्थ एवं हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार । (११) यन्त्रपीडनकर्म-हिंसक मशीनें बनाकर बेचना । (१२) निर्लाञ्छन कर्म-प्राणियों, अवयवों के काटकर बेचने का व्यापार । (१३) दावाग्नि बाम-जंगल, खेत, पर्वत में अग्नि लगाने का कार्य । (१४) सरोहवतड़ाग शोषणता कर्म-सरोवर, द्रह, तालाब आदि में जल सुखाने का कार्य करना। (१५) असतीजन पोषणता कर्म-कुलटा स्त्रियों का पोषण करके उनसे अर्थ लाभ करना एवं हिंसक, चोर आदि अवांछनीय व्यक्तियों को प्रोत्साहन देना। इस प्रकार सातवें उपभोग-परिभोगपरिमाणवत के भोजन सम्बन्धी पांच अतिचार एवं कर्म सम्बन्धी पन्द्रह अतिचार कुल मिलाकर बीस अतिचार होते हैं। अनर्थदण्ड विरमणव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं(१) कन्वर्प-विकारवर्धक वचन बोलना, सुनना व वैसी चेष्टाएँ करना। (२) कोत्कुच्य-भाण्डों के समान हास्य व विकारवर्धक चेष्टा करना । (३) मौखर्य-वाचालता बढ़ाना, निरर्थक मनगढन्त असत्य व कल्पित बातें कहना । (४) सुंयक्ताधिकरण-अनावश्यक हिंसक अस्त्रशस्त्रों का संग्रह रखना। (५) उपभोग-परिभोगातिरेक-उपभोग-परिमोग की सामग्री को आवश्यकता से अधिक संग्रह करके रखना। नवम सामायिकवत व उसके अतिचार (१) मनोदुष्प्रणिधान-सामायिक के समय मन में आत्मा से अन्य वस्तुओं के संयोग-वियोग की कल्पना करना। (२) वचनदुष्प्रणिधान-सामायिक के समय निरर्थक सावध असत्य वचन बोलना। (३) कायदुष्प्रणिधान-शरीर से सावद्य प्रवृत्ति करना । (४) स्मृत्यकरण-सामायिक के समय की स्मति न रखना। (५) अनवस्थितता-सामायिक के समय मन में चंचलता रखना। वशम वेशावकाशिकवत व उसके अतिचार देशावकाशिकव्रत में देश और अवकाश दो शब्द हैं जिसका तात्पर्य होता है जितने क्षेत्र में आरम्भ-परिग्रह सावद्य व्यापार आदि की सीमा निश्चित की है, उस सीमा क्षेत्र के बाहर व्यापार आदि की कोई प्रवृत्ति न करना । इस व्रत में कुछ समय के लिये भी सावध प्रवृत्ति का भी त्याग किया जाता है अथवा प्रतिदिन के लिये कुछ ऐसे दैनिक नियम लिये जाते हैं जिससे अन्य सभी व्रतों का पोषण होता है । इसमें चतुर्दश नियम विशेषतया लिये जाते हैं, वे निम्न हैं(१) सचित्त-अन्न, फल, आदि सचित्त वस्तुओं की संख्या नाप, तोल का प्रतिदिन निश्चित करना (२) द्रव्य-खाने पीने की वस्तुओं की संख्या निश्चित करना । जितने स्वाद पलटे उतने द्रव्य माने जाते हैं, जैसे-पूरी, रोटी आदि (३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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