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________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान ५१७ +++++++ + +++ ++ + ++ ++ + + + ++ + + + + + + + + + + ++ ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++ + + + ++ + + ++++ ++ ++ ++ ++ + ++ ++ + ++ ++ ++ १३. सयोगी केवली चार घातिक कर्मों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय के क्षीण होने पर जिसके शरीर आदि की प्रवृत्ति शेष रहती है, उसे सयोगी केवली कहा जाता है। अर्थात् जो विशुद्ध ज्ञानी होने पर भी यौगिक प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं होता वह सयोगी कहलाता है। घातीकर्मों के नष्ट होने पर जीव समस्त चराचर तत्वों को हस्तामलकवत् देखता है । वह विश्वतत्त्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है । इस अवस्था में जीव कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक एक करोड़ पूर्व वर्ष तक रहता है । वह सर्वज्ञ और केवली कहलाता है और उसे ही वेदान्त ने 'जीवन्मुक्ति' अथवा 'सदेह मुक्ति' की अवस्था कहा है। जब तेरहवें गुणस्थान के काल में एक अन्तम हर्त समय अवशेष रहता है, उस समय यदि आयुकर्म की स्थिति कम और शेष तीन अघातिया कर्मों को स्थिति अधिक रहती है तो उसकी स्थिति के समीकरण के लिए केवली समुद्घात करते हैं, अर्थात् मूल शरीर को छोड़े बिना ही अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाल देते हैं । प्रथम समय में चौदह रज्जू प्रमाण लम्बे दण्डाकार आत्म-प्रदेश फैलते हैं। उन आत्म-प्रदेशों का आकार दण्ड जैसा होता है। ऊंचाई में लोक के ऊपर से नीचे तक होता है किन्तु उसकी मोटाई शरीर के बराबर होती है । दूसरे समय में जो दण्ड के समान आकृति थी उसे पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण में फैलाकर उसका आकार कपाट (किवाड़) के सदृश बनाया जाता है। तीसरे समय में कपाट के आकार वाले उन आत्म-प्रदेशों को मन्थाकार बनाया जाता है। अर्थात पूर्व-पश्चिम उत्तरऔर दक्षिण दोनों तरफ आत्म-प्रदेशों को फैलाने से उनका आकार मथनी के जैसा हो जाता है। चोथे समय में विदिशाओं में आत्म-प्रदेशों को पूर्ण करके संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं। इसे आचार्य ने लोकपूरण समुद्घात कहा है। इसी प्रकार चार समयों में आत्म-प्रदेश पुनः संकुचित होते हुए पहले आकारों को धारण करते हुए शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसे केवली-समुद्घात कहते हैं। इस क्रिया से जिस प्रकार गीले वस्त्र को फैलाने से उसको आर्द्रता शीघ्र नष्ट हो जाती है उसी प्रकार आत्म-प्रदेशों को फैलाने से उनमें संसक्त कर्म-प्रदेशों का स्थिति व अनुभागांश क्षीण होकर आयु-प्रमाण हो जाते है। केवली-समुद्घात में आत्मा की व्यापकता का प्रतिपादन किया गया है। उसकी तुलना श्वेताश्वतरोपनिषद्, भगवद्गीता में जो आत्मा की व्यापकता का विवरण है उससे की जा सकती है। जिस प्रकार जैन साहित्य में वेदनीय आदि कर्मों को शीघ्र भोगने के लिए समुद्घात क्रिया का उल्लेख है वैसे ही योग-दर्शन में बहुकाय-निर्माण क्रिया का वर्णन है जिसे तत्त्व साक्षात् करने वाला योग स्वोपक्रम कर्म को शीघ्र मोगने के लिए करता है। षट्खण्डागम में सजोगी केवली के स्थान पर सयोग केवली शब्द का प्रयोग हुआ है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, उच्च गोत्र और यशः नाम इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सातावेदनीय कर्म प्रकृति का ही बन्ध होता है। १४. अयोगी केवली इस गुणस्थान में प्रवेश करते ही शुक्लध्यान का चतुर्थ भेद समुच्छिन्न क्रिय-अनिवृत्त प्रकट होता है। उसके द्वारा योगों का निरोध होता है । मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों का सर्वथा निरोध करने के कारण ही इस गुणस्थान को अयोगी केवली कहा गया है। यह चारित्र-विकास और आत्म-विकास की चरम अवस्था है। इसमें आत्मा उत्कृष्टतम शुक्लध्यान के द्वारा सुमेरु पर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त कर अन्त में देहत्याग कर सिद्धावस्था को प्राप्त करता है। इस गुणस्थान में अ, इ, उ, ऋ, लु इन पाँच ह्रस्व अक्षरों को बोलने में जितना समय लगता है उतने ही समय में वह मुक्त हो जाता है, जिसे परमात्मपद, स्वरूपसिद्धि, मुक्ति, निर्वाण, अपुनरावृत्ति-स्थान और मोक्ष आदि नामों से कहा जाता है । यह आत्मा की सर्वांगीण पूर्णता पूर्णकृतकृत्यता एवं परमपुरुषार्थ-सिद्धि है। षट्खण्डागम में अयोगी केवली के स्थान पर अयोग केवली शब्द व्यवहृत हुआ है । आत्मा के इस विकास क्रम से स्पष्ट है कि जैनधर्म में कोई अनादि सिद्ध, परमात्मा नहीं माना गया है। प्रत्येक प्राणी अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। आत्मा के तीन रूप इस विराट विश्व में अनन्त आत्माएं हैं, चाहे वे त्रस हैं या स्थावर । जैन-दर्शन में अध्यात्म-विकास की दृष्टि से उनका तीन भागों में वर्गीकरण किया है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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