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________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान ५०६ अनिवृत्तिकरण की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । उस अन्तमुहूर्त प्रमाण की स्थिति में से जब कई एक भाग व्यतीत हो जाते हैं और एक भाग मात्र अवशेष रहता है उस समय अन्तरकरण की क्रिया प्रारम्भ होती है । अनिवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति का अन्तिम एक भाग जिसमें अन्तरकरण की क्रिया प्रारम्भ होती है वह भी अन्तमुहूर्त प्रमाण होता है । अन्तमुहूर्त के असंख्य प्रकार हैं। अतः यह स्पष्ट है कि अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त की अपेक्षा उसके अन्तिम भाग का अन्तर्मुहूर्त जिसको अन्तर-करण-क्रिया-काल कहते हैं, लघु होता है। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम भाग में अन्तर-करण की क्रिया होती है। इसका सारांश यह है कि अभी जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म उदयमान है उसके उन दलिकों को जो कि अनिवृत्तिकरण के पश्चात् अन्तमुहूर्त तक उदय में आने वाले हैं, उन्हें आगे-पीछे करना। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो अनिवृत्तिकरण के पश्चात् अन्तर्मुहुर्त प्रमाण काल में मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के जितने दलिक उदय में आने वाले हों उनमें से कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय तक उदय में आने वाले दलिकों को रखा जाता है और कुछ दलिकों को उस अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उदय में आनेवाले दलिकों के साथ मिला देते हैं जिससे अनिवृत्तिकरण के पश्चात् का एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ऐसा होता है कि जिसमें मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का दलिक किंचित् मात्र भी नहीं रहता। अतः जिस नवीन बन्ध का अबाधाकाल पूर्ण हो चुका है ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दो विमाग हो जाते हैं। एक विभाग वह है जो अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय तक उदयमान रहता है। और दूसरा भाग वह है जो अनिवृत्तिकरण के पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल व्यतीत होने पर उदय में आता है। इन दो भागों में से प्रथम भाग को मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति और द्वितीय भाग को द्वितीय स्थिति कह सकते हैं। जिस समय में अन्तरकरण क्रिया प्रारम्भ होती है अर्थात् उदय-योग्य दलिकों का निरन्तर व्यवधान किया जाता है उस समय से अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय तक पूर्व बताये हुए दो भागों में से प्रथम भाग का उदय रहता है । अनिवृत्तिकरण का अन्तिम समय पूर्ण हो जाने पर मिथ्यात्व का किसी भी प्रकार का उदय नहीं रहता चूंकि उस समय जिन दलिकों के उदय की सम्भावना है वे सभी दलिक अन्तरकरण क्रिया से आगे और पीछे उदय में आने योग्य कर दिये जाते हैं। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय तक मिथ्यात्व का उदय रहता है । इसीलिए उस समय तक जीव मिथ्यात्वी कहलाता है। अनिवृत्तिकरण का समय पूर्ण होने पर जीव को औपशमिक सम्यक्त्व उपलब्ध होता है । उस समय मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार का उदय नहीं होता जिससे जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है और वह औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । औपशमिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त रहता है। जिस प्रकार एक जन्मान्ध व्यक्ति को नेत्रज्योति प्राप्त होने पर उसे अपूर्व आनन्द की उपलब्धि होती है वैसे ही जीव को औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होने पर अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है। औपशमिक सम्यक्त्व का काल उपशान्ताद्धा या अन्तरकरण काल कहलाता है। प्रथम स्थिति के अन्तिम समय में अर्थात् उपशान्ताद्धा के पूर्व समय में जीव विशुद्ध परिणाम से उस मिथ्यात्व के तीन पुञ्ज करता है जो उपशान्ताद्धा के पूर्ण हो जाने के पश्चात् उदय में आनेवाला है। जैसे कोद्रव नामक धान्य विशेष प्रकार की औषधी से साफ करते हैं तब उसका एक भाग इतना निर्मल हो जाता है कि उसके खाने वाले को उसका नशा नहीं आता; दूसरा भाग कुछ साफ होता है कुछ साफ नहीं होता, वह अर्धशुद्ध कहलाता है। और कोद्रव का कुछ भाग बिलकुल ही अशुद्ध रह जाता है जिसको खाने से नशा आ जाता है । इसीतरह द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के तीन पुञ्जों में से एक पुञ्ज तो इतना विशुद्ध हो जाता है कि उसमें सम्यक्त्वघातक रस का अभाव हो जाता है। द्वितीय पुञ्ज अर्धशुद्ध होता है । और तृतीय पुञ्ज अशुद्ध होता है । उपशान्ताद्धा पूर्ण हो जाने के पश्चात् उपयुक्त तीन पुञ्जों में से कोई एक पुञ्ज जीव के परिणाम के अनुसार उदय में आता है। यदि जीव विशुद्ध परिणामी ही रहे तो शुद्ध पुञ्ज उदय में आता है । शुद्ध पुञ्ज के उदय होने से सम्यक्त्व का घात तो नहीं होता किन्तु उस समय जो सम्यक्त्व उपलब्ध होता है वह क्षायोपशमिक कहलाता है। यदि जीव का परिणाम पूर्ण शुद्ध नहीं रहा और न अशुद्ध ही रहा उस मिश्रस्थिति में अर्धविशुद्ध पुञ्ज का उदय होता है। उस समय जीव तृतीय गुणस्थानवर्ती कहलाता है। यदि परिणाम पूर्ण अशुद्ध ही रहा तो अशुद्ध पुञ्ज उदय में आयेगा। अशुद्ध पुञ्ज के उदय होने पर जीव पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशान्ताद्धा, जिसमें जीव निर्मल स्थिति में होता है उसका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिकाएँ जब शेष रह जाती हैं तब किसी-किसी औपशमिक सम्यक्त्वी जीव को विघ्न उपस्थित होता है। उसकी निर्मल अवस्था में बाधा उत्पन्न होती है। क्योंकि उस समय अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय हो जाता है। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय होने पर जीव सम्यक्त्व परिणाम का परित्याग कर मिथ्यात्व की ओर बढ़ता है। जब तक वह मिथ्यात्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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