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________________ **** इन पाँच प्रकार के मिध्यात्वों में एक अनाभोगिक मिथ्यात्व अव्यक्त है शेष चारों मिथ्यात्व व्यक्त हैं । २३ अपेक्षा दृष्टि से मिथ्यात्व के दस भेद भी बनते हैं। ये इस प्रकार हैं२४ (१) अधर्म में धर्मसंज्ञा (२) धर्म में अधर्मसंज्ञा (३) मार्ग में मा (४) मार्ग में अमार्गा (५) अजीब में जीवा (६) जीव में अजीवा आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान ५०७ (७) असाधु में माधुसंज्ञा (८) साधु में असाधुसंज्ञा (e) अमुक्त में मुक्तसंज्ञा (१०) मुक्त में अमुक्तसंज्ञा Jain Education International यह दस प्रकार के मिथ्यात्व व्यक्त हैं। शब्दों के परिवर्तन के साथ बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में भी मिथ्यात्व का निरूपण किया गया है जो अधर्म को धर्म, अविनय को विनय, अभाषित को भाषित, अनाचीर्ण को आचीर्ण, आचीणं को अनाचीर्ण, अप्रज्ञत्व को प्रज्ञत्व, और प्रज्ञत्व को अप्रज्ञत्व कहते हैं, जो बहुत व्यक्तियों के लिए अहितकर्ता, असुखकर्ता और अनर्थ को उत्पन्न करने वाले होते हैं । वे पापों का उपार्जन कर सद्धर्म का लोप करते हैं। वे अकुशलधर्म का संचय करते हैं और कुलधर्म का नाश करते हैं।" दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र ने एकान्त, विपरीत, विनय, संशयित और अज्ञान ये पाँच मिध्यात्व के भेद बताये हैं ।"" धवला में कहा है कि मिथ्यात्व के ये पाँच ही भेद हैं ऐसा नियम नहीं है, जो पाँच मेद कहे गये हैं वे केवल उपलक्षण मात्र हैं |२७ आगम साहित्य में बिखरे हुए सभी मिध्यात्वों को एकत्रित करने पर पच्चीस मिथ्यात्व होते हैं। वे इस प्रकार हैं (१) अभिगृहीत (२) अनभिगृहीत (२) आभिनिवेशिक (४) संशयित (५) अनामोगिक (६) लौकिक (७) लोकोत्तर (८) कुप्रावचनिक (२) अविनय (१०) अक्रिया (११) अशातना (१२) आउया (आत्मा को पुष्य-पाय नहीं लगता ) (१३) जिनवाणी की न्यून प्ररूपणा (१४) जिनवाणी की अधिक प्ररूपणा (१५) जिनवाणी से विपरीत प्ररूपणा (१६) धर्म को अधर्म (१७) अधर्म की धर्म (१८) साधु को असाधु (१९) असाधु को साधु (२) जीव को अजीव (२१) अजीव को जीव (२२) मोक्षमार्ग को संसारमार्ग (२३) संसार मार्ग को मोक्षमार्ग (२४) मुक्त को अमुक्त (२५) अमुक्त को मुक्त कहना। तथ्य यह है कि यों मिथ्यात्व के अनेक भेद हो सकते हैं जिनकी परिगणना करना भी सम्भव नहीं है । जब तक अनन्ताबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्वमोहनीय, मित्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय नहीं हो जाता तब तक कोई भी जीव प्रथमगुणस्थान छोड़ नहीं सकता । इन प्रकृतियों के उदयभाव में प्रथम गुणस्थान है, अर्थात् मिथ्यात्व - दर्शनमोहनीय का उदय जब तक जीव में बना रहता है तब तक वह मिथ्यात्वी बना रहता है । काल की दृष्टि से प्रथम गुणस्थान के तीन रूप बनते हैं - अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि-सान्त । २८ प्रथम रूप के अधिकारी अभव्य जीव अथवा जाति भव्य ( भव्य होने पर भी जो जीव कभी मुक्त नहीं होते), जीव होते हैं । द्वितीय रूप उन जीवों की अपेक्षा से है, जो अनादिकालीन मिथ्या दर्शन की गांठ को खोलकर सम्पकष्टि बन सकते हैं । तृतीय रूप उनकी अपेक्षा से है, जिन्होंने एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है, किन्तु फिर से मिथ्यात्वी हो गए हैं। प्रथम गुणस्थान की आदि तभी होती है जब कोई जीव सम्यक्त्व से गिरकर पुनः प्रथम गुणस्थान जाय। जिस जीव को एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी है वह निश्चय ही मोक्षगामी है। जिस जीव के मिथ्यात्व की आदि हो गयी उसका अन्त अवश्यम्भावी है । में आ आठों कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं । उनमें से एक समय में बंधने योग्य १२० हैं । शेष २८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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