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________________ O. ० O Jain Education International ४८२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड धूम्रपान एवं मद्यपान को आधुनिक युवा सभ्यता का प्रमुख अंग माना जाता है। यद्यपि किसी ग्रन्थ में इसके सेवन का विधि-विधान या स्पष्ट निर्देश उल्लिखित नहीं है, तथापि तथाकथित सभ्य समाज का वर्ग विशेष इसे भी जीवन का आवश्यक अंग मानता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान एवं अनुसन्धानकर्ता अनेक वैज्ञानिकों ने धूम्रपान व मद्यपान को एक स्वर से स्वास्थ्य के लिए हानिकर तथा जीवन व समाज को खोखला करने वाला बतलाया है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान किसी भी व्यक्ति को इनके सेवन की प्रेरणा या सलाह नहीं देता है । क्योंकि शारीरिक व मानसिक दोनों दृष्टि से ये दोनों मानव स्वास्थ्य के शत्रु हैं । इसी भाँति जैनधर्म ने भी धूम्रपान का प्रबल निषेध किया है। इस सम्बन्ध में जैनधर्म का अत्यन्त विशाल दृष्टिकोण है । शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से तो इनका सेवन व्यर्थ है ही, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी ये दोनों नितान्त हेय हैं। उपर्युक्त दोनों व्यसन नैतिक दृष्टि से मनुष्य का कितना अध:पतन कर देते हैं इसके अनेक उदाहरण वर्तमान समाज में आए दिन देखने को मिलते हैं । व्यसनरत किसी भी व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास तब तक सम्भव नहीं है जब तक वह इनका पूर्णतः परित्याग नहीं कर देता । जैनधर्म की दृष्टि से धूम्रपान एवं मद्यपान का सेवन जघन्य पाप तो है ही, यह एक ऐसा दुर्व्यसन है जो मनुष्य की आत्मा को अधःपतन की ओर ले जाता है । अतः शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से इन व्यसनों का त्याग आवश्यक है । इस सन्दर्भ में आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों की यह खोज महत्वपूर्ण है कि धूम्रपान का सतत सेवन कैंसर व्याधि की उत्पत्ति का कारण है । इसी प्रकार मद्यपान भी अनेक शारीरिक एवं मानसिक विकारों के साथ अनेक व्याधियों को उत्पन्न करता है । मद्यपान तत्काल हृदय को प्रभावित कर तामस भाव उत्पन्न करता है । जैनधर्म में मनुष्य के आचरण की शुद्धता को विशेष महत्व दिया गया है। जब तक मनुष्य अपने आचरण को शुद्ध नहीं बनाता तब तक उसका शारीरिक विकास महत्वहीन एवं अनुपयोगी है। मनुष्य के आचरण का पर्याप्त प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है। विपरीत आचरण या अशुद्ध आचरण मानव स्वास्थ्य को उसी प्रकार प्रभावित करता है जिस प्रकार उसका आहार-विहार । आचरण से अभिप्राय यहाँ दोनों प्रकार के आचरण से है- शारीरिक और मानसिक शारीरिक आचरण शरीर को और मानसिक आचरण मन को प्रभावित करता ही है, साथ ही शारीरिक आचरण मन को और मानसिक आचरण शरीर को भी प्रभावित करता है। इन दोनों आचरणों से मनुष्य की आत्मशक्ति भी निश्चित रूप से प्रभावित होती है। क्योंकि आचरण की शुद्धता आत्मशक्ति को बढ़ाने वाली और आचरण की अशुद्धता आत्मशक्ति का ह्रास करने वाली होती है। इसका स्पष्ट प्रभाव मुनिजन, योगी, उत्तम साधु और संन्यासियों में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे गृहस्थ श्रावकों में भी आत्मशक्ति की वृद्धि का प्रभाव दृष्टिगत हुआ है जिन्होंने अपने जीवन में आचरण की शुद्धता को विशेष महत्व दिया। ऐसे सन्त पुरुषों में महान् आध्यात्मिक सन्त पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी आदि तथा गृहस्थ जीवनयापन करने वालों में महात्मा गाँधी, विनोबा भावे, गुरु गोपालदास जी वरैया, पं० चैनमुखदास जी न्यायतीर्थ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। को आत्मशक्ति या आध्यात्मिक प्रभाव के सम्बन्ध में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भौतिकवाद से प्रेरित होने के कारण यद्यपि स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है, किन्तु वह परोक्ष रूप से इसका समर्थन अवश्य करता है—यह एक तथ्य है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकता कि दीर्घकाल से रुग्ण और जर्जरित देह वाले व्यक्ति के शरीर में ऐसी कोई शक्ति विशेष अवश्य रहती है जो उसके जीवन को धारण करती है और उसे जीवित रहने के लिए सतत रूप से प्रेरित करती रहती है। मानव शरीर की अन्तर्निहित यह शक्ति- विशेष मनुष्य वह दृढ़ आधार प्रदान करती है जिससे शारीरिक रूप से क्षीण व्यक्ति को भी बल मिलता है। कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति का मनोबल अत्यन्त ऊँचा है । इस मनोबल का आधार मनुष्य की अन्तर्निहित आत्म-शक्ति ही है । अत: चाहे इसे मनुष्य का नैतिक बल कहा जाय, चाहे इसे मनोबल कहा जाय, चाहे इसे आत्म-शक्ति या आध्यात्मिक शक्ति कहा जाय सब एक ही है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भले ही भौतिकवाद से प्रेरित हो, वह मनुष्य को विपरीत आचरण या कदाचरणकी प्रेरणा कदापि नहीं दे सकता। वह नहीं कहता कि मनुष्य असत्य का आचरण करे, वह नहीं कहता कि स्त्री प्रसंग आदि विषयों में अधिकतापूर्वक रमण करता हुआ मनुष्य उसके कुप्रभाव से अपने स्वास्थ्य का ह्रास करे या परस्त्रीगमन आदि कुआचरण करे। जिन वस्तुओं (गांजा, भांग, अफीम आदि) के सेवन से मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है, उनके सेवन का निर्देश आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में नहीं है । मनुष्य में पाशविक वृत्ति का उद्भव करने वाले आहार का निषेध आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी किया है । यही आचरण की शुद्धता है । जैनधर्म में इन बातों के अतिरिक्त कुछ अन्य बातों पर भी विशेष जोर दिया गया है। इस प्रकार मौलिक रूप से भिन्न होते हुए भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अनेक विषयों में जैनधर्म के निकट है । ✩ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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