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________________ जैनधर्म की वैज्ञानिकता और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के सन्दर्भ ४७६ . ++++ ++ + + +++++++ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - प्राणित है। इसका कारण संभवतः यही है कि दोनों का उद्भव स्थल एक ही है और दोनों में विचार साम्य की स्थिति है। इस आधार पर अथवा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का अनुशीलन करने पर यह तो स्पष्ट हो जाता है कि वह मनुष्य को शारीरिक दृष्टि से अधिक महत्त्व देता है, मानसिक दृष्टि से कम और आत्मा या आध्यास्मिक दृष्टि से तो बिल्कुल नहीं । शारीरिक दृष्टि से मनुष्य का महत्त्व यद्यपि अस्थायी है और शरीर का विनाश हो जाने पर उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता। किन्तु यावत् काल शरीर विद्यमान रहता है तब तक वही महत्त्वपूर्ण है । इसके अतिरिक्त शरीर के जीवन के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि शरीर में कुछ विशिष्ट द्रव्यों का संयोग ही शरीर को जीवित रखकर उसे जीवन प्रदान करता है और उन विशिष्ट द्रव्यों का विघटन शारीरिक जीवन के अन्त का कारण है। किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक इस प्रकार के अनुसन्धान में सफल नहीं हुए हैं कि शरीर को जीवन शक्ति प्रदान करने वाले वे विशिष्ट घटक या द्रव्य कौन-कौन से हैं। उनका दावा है कि एक न एक दिन वे उसे खोज निकालने में समर्थ होंगे और इस प्रकार वे मानव मृत्यु पर सदा सर्वदा के लिए विजय प्राप्त कर सकेंगे। विज्ञान द्वारा प्रतिपादित भौतिक अनुसन्धान संभवतः युग-युगों तक प्रयत्नशील रहेगा और असफलता की एक-एक सीढ़ी पार करता हुआ इस दिशा में आगे बढ़ता रहेगा । असफलता की चरम परिणति संभवतः उसके समूल विनाश में हो क्योंकि नश्वरता की गोद में पले हुए भौतिकवाद की चरम परिणति उसके विनाश में ही होती है, यह सृष्टि का अटल नियम है। जैन-दर्शन का महत्व आध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से है। चिकित्सा की दृष्टि से उसका कोई महत्व नहीं है और न ही जैन-दर्शन में चिकित्सा के कोई निर्देशक सिद्धान्त निरूपित हैं। किन्तु चिकित्सा का सम्बन्ध मानव स्वास्थ्य से है और स्वास्थ्य की दृष्टि से अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्त जैन-दर्शन द्वारा प्रतिपादित किए गए हैं। स्वास्थ्योपयोगी जैन-दर्शन के वे सिद्धान्त भले ही स्वास्थ्य की दृष्टि से वणित न किए गए हों, किन्तु मानव मात्र के लिए मानव शरीर की दोषों से रक्षा के निमित्त आध्यात्मिक शूद्धि हेतु प्रतिपादित वे नियम निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं। आध्यात्मिक शुद्धि एवं आत्मकल्याण की भावना से अभिभूत मनुष्य के लिए भले ही उसके शरीर और उसके शारीरिक स्वास्थ्य का कोई महत्व न हो किन्तु एक गृहस्थ एवं श्रावक को तो शरीर की रक्षा का उपाय करना ही पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार अन्यान्य दोषों से आत्मा की रक्षा करना उसका परम कर्तव्य है उसी प्रकार रोगों से शरीर की रक्षा करना भी उसका परम कर्तव्य है । शरीर की रक्षा के बिना अथवा स्वस्थ शरीर के बिना धर्म साधन सम्भव नहीं है । धर्म का अभिप्राय मानव जीवन की निष्क्रियता भी नहीं है कि धर्म के नाम पर मनुष्य स्वयं को समस्त लौकिक कर्मों से विरत कर ले। अपितु नैतिक आचरण की शुद्धता एवं संयम पूर्ण जीवन ही वास्तविक धर्म है। जीवन की उपयोगिता शरीर के बिना नहीं है, अतः व्यावहारिक जीवन में शरीर की रक्षा करना तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य रक्षण हेतु सदैव सजग रहना मानव मात्र का परम कर्तव्य है। चारों ही पुरुषार्थ की सिद्धि शरीर के ही माध्यम से होती है और शरीर का स्वास्थ्य ही इनका मूल आधार है । आचार्यों के शब्दों में "धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।" यह महत्वपूर्ण तथ्य जो आचार्यों की गहन दृष्टि का परिणाम है लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टि से उपयोगी एवं सार्थक है । अतः अपने शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हेतु सतत प्रयत्नशील रहना हमारा नैतिक उत्तरदायित्व हो जाता है। शरीर के प्रति मोह नहीं रहना आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, किन्तु इसका यह भी अभिप्राय नहीं है कि शरीर की पूर्ण उपेक्षा की जाय । जान-बूझकर शरीर की उपेक्षा करना एक प्रकार का आत्मघात है और आत्मघात को शास्त्रों में सबसे बड़ा दोष माना गया है। अतः धर्म साधन हेतु आहार आदि के द्वारा शरीर का साधन करना तथा अहितकारी विषयों से उसकी रक्षा कर विकार एवं रोगों से उसे बचाना आवश्यक है । एकान्ततः शरीर की उपेक्षा करने का उल्लेख किसी शास्त्र में नहीं है। जैनधर्म में भी आत्म-साधना के समक्ष शरीर को यद्यपि नगण्य माना गया है किन्तु पूर्णतः उसकी उपेक्षा का निर्देश नहीं दिया गया। अतः यावत् काल शरीर की आयु है तावत् काल उसे स्वस्थ रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ पर यह ध्यान योग्य है कि शरीर को स्वस्थ रखना और उसे रोगों से बचाना एक भिन्न बात है और शरीर से मोह रखते हुए उसके माध्यम से भौतिक सुखों का उपभोग करना एक भिन्न बात है । जैनधर्म शरीर को भौतिक सुखों से विरत रखने का निर्देश तो देता है किन्तु स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी सात्विक उपायों के सेवन का निषेध नहीं करता । __मानव शरीर के स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से तथा अहित विषयों में शरीर की प्रवृत्ति को रोकने के लिए जैनधर्म ने मनुष्य के दैनिक आचरण तथा उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक व्यवहार में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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