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________________ ४७६ श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -हे वीतराग प्रभो ! आपकी कृपा से मुझ में ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाय कि मैं समस्त दोषों से रहित विशुद्ध, निर्मल इस दोषमुक्त एवं अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्मा को शरीर से उसी प्रकार अलग कर सकू, जिस प्रकार तलवार को म्यान से अलग किया जाता है। यह है-अध्यात्मवादी का लक्षण ! यह है आत्मा के स्वरूपज्ञ का व्यवहार-दर्शन ! जीवन के प्रत्येक व्यवहार, प्रत्येक प्रवृत्ति और हर क्रिया में, जब इस प्रकार का आत्म-व्यवहार, आत्मज्ञान का स्पष्ट अभिव्यञ्जन हो जाएगा, तब समझ लो कि आत्मा का वास्तविक ज्ञान उक्त व्यक्ति में हो गया। ऐसा सच्चा आत्म ज्ञान जिसको हो जाता है, वह चाहे गृहस्थ में रहे, चाहे साधुजीवन में-वह किसी पर देष, मोह, घृणा, क्रोध, अहंकार, छल, मूठ आदि नहीं कर सकता, और न ही अपने माने जाने वाले शरीर या शरीर से सम्बन्धित सजीव (शिष्य-शिष्या, सम्प्रदाय, परिवार आदि) या निर्जीव (उपाश्रय, मठ, मन्दिर, घर, दूकान, नगर, प्रान्त, राष्ट्र, भाषा आदि) पर उसकी ममता, मूर्छा, मोह या आसक्ति हो सकती है। इसका मतलब यह नहीं है कि आत्मवादी निश्चेष्ट, मूक, उदासीन या तटस्थ होकर चुपचाप बैठ जाएगा। वह अपनी मर्यादा में जो भी प्रवृत्तियाँ होंगी, उन्हें करेगा, किन्तु करेगा उसी दृष्टि से, जोकि आत्मगुणों में वृद्धि करने वाली होंगी, देहभाव घटाने वाली होंगी अथवा ममत्वभाव से दूर रखने वाली होंगी। यही अध्यात्मभाव को अभिव्यक्त करने का माध्यम है, यही जीवन की अध्यात्मदृष्टि है, यही स्वभावरमणता की निशानी है, यही सुख-शान्ति का सरलतम पथ है; यही सच्चा अध्यात्मयोग है। ___ आत्मा को सच्चे माने में जानने, मानने और हृदयंगम करने की यह बात कोई कठिन नहीं है, केवल जीवन की दिशा को बदलने की जरूरत है; व्यक्ति को अपना मुख मोड़ने की जरूरत है। जो दिशा इस समय आत्मज्ञान के भ्रम के कारण भौतिक पदार्थों के प्रति ममाव आदि की चल रही है, उसी दिशा को वहां से समत्व की ओर मोड़ना है। आसक्तिमुखी जीवन को अनासक्तिमुखी करना है, ज्ञान की भ्रान्ति से अभिभूत मन को स्वभावरमणता से ओतप्रोत करना है। -----पुष्क र वाणी--------------------------------------2 जो बालक अभी चलना सीख रहा है, वह यदि दिन में कई बार गिरता १ है तो न तो उसे कोई विशेष पीड़ा होती है, और न कोई उस पर हंसता ही है । किन्तु बड़ा आदमी यदि चलता-चलता गिर पड़ता है तो उसे भी गम्भीर चोट लगती है और देखने वाले भी उस पर हंसते हैं। अपढ़, कम समझ और नौसिखिया व्यक्ति यदि अपने जीवन-क्रम में बारबार भूल करता है, पथ से चलित होता है तो यह उतना खतरनाक एवं हास्यास्पद नहीं होता, किन्तु जो पढ़ा-लिखा है, समझदार कहलाता है, और स्वयं को सुशिक्षित समझता है, वह यदि जीवन में बार-बार भटकता है, भूलें करता है तो स्वयं उसके लिए भी खतरनाक है, और समाज में भी वह हँसी का पात्र बनता है। --0--0--0--0--0--0--0--0--0 n-or-0-0-0--0-0-0--0-0--0--0-0-0--0--0--0--0------------- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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