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________________ लेश्या : एक विश्लेषण ४६३ .. ..... 9 ++++ ++ +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ नष्ट हो जाने पर भी लेश्या होती है । यदि लेश्या को अघातीकर्म द्रव्यस्वरूप माने तो अघाती कर्मोंवालों में भी सर्वत्र लेश्या नहीं है। चौदहवें गुणस्थान में अघातीकर्म है, किन्तु वहाँ लेश्या का अभाव है । इसलिए योग द्रव्य के अन्तर्गत ही द्रव्य स्वरूप लेश्या मानना चाहिए। लेश्या से कषायों की वृद्धि होती है। क्योंकि योगद्रव्यों में कषाय बढ़ाने का सामर्थ्य है। प्रज्ञापना की टीका में आचार्य ने लिखा है-कर्मों के द्रव्य, विपाक होने वाले और उदय में आने वाले दोनों प्रयत्नों से प्रभावित होते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपना कर्तृत्व दिखाते हैं। जिसे पित्त-विकार हो उसका क्रोध बढ़ जाता है। ब्राह्मी का सेवन ज्ञानावरण को कम करने में सहायक है। मदिरापान से ज्ञानावरण का उदय होता है। दही के सेवन से निद्रा की अभिवृद्धि होती है। निद्रा जो दर्शनावरण का औदयिक फल है। अतः स्पष्ट है कषायोदय में अनुरंजित योग प्रवृत्ति ही (लेश्या) स्थितिपाक में सहायक होती है। गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने योग-परिणामस्वरूप लेश्या का वर्णन किया है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में" और गोम्मटसार के कर्मकाण्ड खण्ड में कषायोदय अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहा है । प्रस्तुत परिभाषा के अनुसार दसवें गुणस्थान तक ही लेश्या हो सकती है । प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत होने से पूर्व की परिभाषा से विरुद्ध नहीं है। अब हम संक्षेप में तीनों परिभाषाओं के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे। प्रथम कर्मवर्गणानिष्पन्न लेश्या को मानने वाली एक परम्परा थी, किन्तु उस पर विस्तार के साथ लिखा हुआ साहित्य उपलब्ध नहीं है। द्वितीय कर्मनिस्यन्द लेश्या मानने वाले आचार्यों ने योग-परिणाम लेश्या को स्वीकार नहीं किया है। उनका मन्तव्य है कि लेश्या योग-परिणाम नहीं हो सकती। क्योंकि कर्मबन्ध के दो कारणों में से योग के द्वारा प्रकृति और प्रदेश का ही बन्ध हो सकता है, स्थिति और अनुभाग का बन्ध नहीं हो सकता। जबकि आगम साहित्य में स्थिति का लेश्याकाल प्रतिपादित किया गया है, वह इस परिभाषा को मानने से घट नहीं सकेगा । अतः कर्मनिस्यन्द लेश्या मानना ही तर्कसंगत है ।२० जहाँ पर लेश्या के स्थितिकाल का बन्धन होता है वहाँ पर चारों का बन्ध होगा । जहाँ पर कषाय का अभाव है वहाँ पर योग के द्वारा दो का ही बन्धन होगा। उपशान्तमोह और क्षीणमोह आत्माओं में कर्म-प्रवाह प्रारम्भ है, वहाँ पर लेश्या भी है, तथापि स्थिति का बन्ध नहीं होता है । प्रश्न है-समुच्छिन्न शुक्लध्यान को ध्याते हुए चौदहवें गुणस्थान में चार कर्म विद्यमान हैं तथापि वहाँ पर लेश्या नहीं है । उत्तर है-जो आत्माएँ कर्म युक्त हैं उन सभी के कर्म-प्रवाह चालू ही रहें, ऐसा नियम नहीं है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो योग परिणाम लेश्या का अर्थ होगा योग ही लेश्या है, किन्तु इस प्रकार नहीं है। उदाहरण के रूप में सूर्य के बिना किरणें नहीं होतीं; किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि किरणे ही सूर्य हैं । तात्पर्य यह है बहता हुआ जो कर्म-प्रवाह है वही लेश्या का उपादान कारण है ।२१ तृतीय योग-परिणाम लेश्या कर्मनिस्यन्द स्वभाव युक्त नहीं है। यदि इस प्रकार माना जायगा तो ईपिथिक मार्ग स्थिति-बन्ध बिना कारण का होगा । आगम साहित्य में दो समय स्थिति वाले अन्तर्मुहूर्त काल को भी निर्धारित काल माना है। अतः स्थितिबन्ध का कारण कषाय नहीं अपितु लेश्या है। जहां पर कषाय रहता है वहाँ पर तीव्र बन्धन होता है। स्थितिबन्ध की परिपक्वता कषाय से होती है । अतः कर्म-प्रवाह को लेश्या मानना तर्कसंगत नहीं है । - कर्मों के कर्म-सार और कर्म-असार ये दो रूप हैं । प्रश्न है-कर्मों के असारमाव को निस्यन्द मानते हैं तो असार कर्म प्रकृति से लेश्या के उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का कारण किस प्रकार होगा ? और यदि कमों के सार-भाव को निस्यन्द कहेंगे तो आठ कर्मों में से किस कर्म के सार-माव को कहें? यदि आठों ही कर्मों का माना जाय तो जहाँ पर कर्मों के विपाक का वर्णन है वहाँ पर किसी भी कर्म का लेश्या के रूप में विपाक का प्रतिपादन नहीं हुआ है। एतदर्थ योग-परिणाम को ही लेश्या मानना चाहिए ।२२ उपाध्याय विनयविजयजी ने लोक-प्रकाश में इस तथ्य को स्वीकार किया है ।२३ भावलेश्या आत्मा का परिणामविशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट; तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम; मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि विविध भेद होने से भाव-लेश्या के अनेक प्रकार है, तथापि संक्षेप में उसे छह भागों में विभक्त किया है । अर्थात्, मन के परिणाम शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकार के होते हैं और उनके निमित्त भी शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के होते हैं । निमित्त अपना प्रभाव दिखाता है जिससे मन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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