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________________ ४४४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्थ : पंचम खण्ड इस प्रकार इन्द्रियों और मन के विषयों में आसक्त प्राणी जन्म-मरण के चक्र में फंसकर विषयासक्ति से अवश, दीन, लज्जित और करुणाजनक स्थिति को प्राप्त हो जाता है। गीता में भी यही दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि 'मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन किए जाने पर उन विषयों से सम्पर्क की इच्छा उत्पन्न होती है और उस सम्पर्क इच्छा से कामना या आसक्ति का जन्म होता है। आसक्त विषयों की प्राप्ति में जब बाधा उत्पन्न होती है तो क्रोध (घृणा, द्वष) उत्पन्न हो जाता है। क्रोध में मूढ़ता या अविवेक, अविवेक से स्मृतिनाश और स्मृतिनाश से बुद्धि विनष्ट हो जाती है और बुद्धि के विनष्ट होने से व्यक्ति विनाश की ओर चला जाता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि जब इन्द्रियों का अनुकूल या सुखद विषयों से सम्पर्क होता है तो उन विषयों में आसक्ति तथा राग के भाव जागृत होते हैं और जब इन्द्रियों का प्रतिकूल या दुःखद विषयों से संयोग होता है अथवा अनूकूल विषयों की प्राप्ति में कोई बाधा आती है तो घृणा या विद्वेष के भाव जागृत होते हैं । इस प्रकार सुख-दुःख का प्रेरक नियम एक दूसरे रूप में बदल जाता है। जहाँ सुख का स्थान राग या आसक्ति का भाव ले लेता है और दुख का स्थान घृणा या द्वेष का भाव ले लेता है। ये राग-द्वेष की वृत्तियाँ ही व्यक्ति के नैतिक अध:पतन एवं जन्म-मरण की परम्परा का कारण होती है । सभी भारतीय दर्शन इसे स्वीकार करते हैं । जैन विचारक कहते हैं "राग और द्वेष ये दोनों ही कर्म-परम्परा के बीज है और यही कर्म-परम्परा के कारण हैं।३२ सभी भारतीय आचार-दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। गीता में कहा गया है "हे अर्जुन | इच्छा (राग) और द्वेष के द्वन्द्व में मोह से आवृत होकर प्राणी इस संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।"33 तथागत बुद्ध कहते हैं जिसने राग-द्वेष और मोह को छोड़ दिया है वही फिर माता के गर्भ में नहीं पड़ता ।" इस समग्र विवेचना को हम संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं कि विविध इन्द्रियों एवं मन के द्वारा उनके विषयों के ग्रहण की चाह में वासना के प्रत्यय का निर्माण होता है। वासना का प्रत्यय पूनः अपने विधानात्मक एवं निषेधात्मक पक्षों के रूप में सुख और दुःख की भावनाओं को जन्म देता है । यही सुख और दुःख की भावनाएँ राग और द्वेष की वृत्तियों का कारण बन जाती है। यही राग-द्वेष की वृत्तियाँ क्रोध, मान, माया, लोभादि विविध प्रकार के अनैतिक व्यापार का कारण होती है। लेकिन इन सबके मूल में तो ऐन्द्रिक एवं मनोजन्य व्यापार ही है और इसलिये साधारण रूप से यह माना गया कि नैतिक आचरण एवं नैतिक विकास के लिए इन्द्रिय और मन की वृत्तियों का निरोध कर दिया जावे । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि इन्द्रियों पर काबू किये बिना रागद्वेष एवं कषायों पर विजय पाना सम्भव नहीं होता है। अतः अब इस सम्बन्ध में विचार करना इष्ट होगा कि क्या इन्द्रिय और मन के व्यापारों का निरोध सम्भव है और यदि निरोध सम्भव है तो उसका वास्तविक रूप क्या है ? इन्द्रिय निरोध : सम्भावना और सत्य इन्द्रियों के विषय अपनी पूर्ति के प्रयास में किस प्रकार नैतिक पतन की ओर ले जाते हैं इसका सजीव चित्रण उत्तराध्ययन सूत्र के ३२ वें अध्ययन में मिलता है। वहां कहा गया है कि ___ रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु इन्द्रिय है, और रूप चक्षु इन्द्रिय से ग्रहण होने योग्य है। प्रिय रूप, राग का और अप्रिय रूप द्वेष का कारण है। जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर होकर पतंगा मृत्यु पाता है, उसी प्रकार रूप में अत्यन्त आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु पाते हैं ।" रूप की आशा में पड़ा हुआ गुरुकर्मी, अज्ञानी जीव, अस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है। परिताप उत्पन्न करता है तथा पीड़ित करता है ।“ रूप में मूर्छित जीव उन पदार्थों के उत्पादन, रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहाँ है? वह संयोग काल में भी अतृप्त रहता है ।" रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता, जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपयोग के समय भी वह दुःख पाता है । श्रोत्रेन्द्रिय शब्द की ग्राहक और शब्द श्रोत का ग्राह्य है। प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है। जिस प्रकार राग में गृद्ध बना हुआ मग मुग्ध होकर शब्द में सन्तोषित न होता हुआ मृत्यु पा लेता है। उसी प्रकार शब्दों के विषय में अत्यन्त मूछित होने वाला जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है । २ शब्द की आसक्ति में पड़ा हुआ भारीकर्मी जीव, अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है और पीड़ा देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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