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________________ . ४३० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड साधुमति भूमि में कुशल, अकुशल तथा अव्याकृत धर्मों का साक्षात्कार, चार प्रतिसंविदों की प्राप्ति, धर्मों की स्वलक्षणता का ज्ञान एवं अप्रमेय बुद्धों की देशना को श्रवण करने का अवसर साधक को मिल जाता है। अन्तिम भूमि धर्ममेधा है। यहाँ तक पहुंचते-पहुंचते साधक पुण्य और ज्ञान संसार की प्राप्ति, महाकरुणा की पूर्णता, सर्वज्ञता और समाधियों को अधिगत कर लेता है । इस स्थिति में प्रादुभूति 'महारत्नराज' नामक पद्म पर बोधिसत्व आसीन होता है । विविध दिशाओं और क्षेत्रों से समागत बोधिसत्व उसके परिमण्डल में बैठ जाते हैं। उसके कायों से अन्तिम महारश्मियों से साधक बोधिसत्व का अभिषेक होता है। तदनन्तर वह महाज्ञान से पूर्ण होकर धर्मचक्रवर्ती बन जाता है और संसारियों का उद्धार करना प्रारम्भ कर देता है। इन भूमियों को जैन परिभाषा में गुणस्थान कहा जा सकता है। महायानी साधक का तृतीय रूप है त्रिकायवाद । बुद्धत्व प्राप्ति के बाद बुद्ध अवेणिक आदि धर्मों से परिमण्डित हो जाते हैं और संसारियों के उद्धार का कार्य बुद्धकाय के माध्यम से प्रारम्भ कर देते हैं। बुद्धकाय अचिन्तता एवं शून्यता रूप धर्मों का एकाकार रूप है। कायभेद से उसके तीन भेद हैं-स्वभावकाय, संयोगकाय और निर्माणकाय। स्वभावकाय बुद्ध की विशुद्धकाय का पर्यायार्थक है। ज्ञान की सत्ता को स्वभावकाय से पृथक् मानकर काय के चतुर्थ भेद का भी उल्लेख मिलता है । इस भेद को ज्ञानधर्मकाय मी कहा गया है। इसका फल है-मार्गज्ञता, सर्वज्ञता और सर्वाकारज्ञता की प्राप्ति । स्वभावकाय और ज्ञानधर्मकाय के संयुक्त रूप को ही धर्मकाय की संज्ञा दी गई है। सम्मोगकाय के माध्यम से बुद्ध विभिन्न क्षेत्रों में देशना देते हैं । अतः उनकी संख्या अनन्तानन्त भी हो सकती है। निर्माणकाय के द्वारा इहलोक में जन्म लिया जाता है । बुद्ध इन त्रिकायों द्वारा परमार्थ कार्य करते हैं करोति येन चित्राणि हितानि जगतः समम् । आभवान् सोऽनुपिच्छन्नः कायो नैर्माणिको मुनेः ॥ बौद्ध तान्त्रिक साधना तान्त्रिक साधना व्यक्ति की दुर्बलता का प्रतीक है। वह अपने को जब ईश्वर विशेष से हीन समझने लगता है तो विपत्तियों को दूर करने के लिए उसकी उपासना करने लगता है । तन्त्र का जन्म यहीं होता है । उसकी उपासना का सम्बन्ध कर्मों की निर्जरा से है । तन्त्र प्रक्रिया के मुख्य लक्षण हैं-ज्ञान और कर्म का समुच्चय, शक्ति की उपासना, प्रतीक प्राचुर्य, गोपनीयता, अलौकिक सिद्धि चमत्कार, गुरु का महत्त्व, मुद्रा-मण्डल-यन्त्र-मन्त्र आदि का प्रयोग, सांसारिक भोगों का सम्मान एवं उनका आध्यात्मिक उपयोग । साधारणतः तान्त्रिक साधना के बीज त्रिपिटककालीन बौद्धधर्म में मिलने लगते हैं पर उसका व्यवस्थित रूप ईसा पूर्व लगभग द्वितीय शताब्दी से उपलब्ध होने लगता है। गुह्य-समाज तन्त्रों का अस्तित्व इसका प्रमाण है । सुचन्द्र, इन्द्रभूति, राहुल भद्र, मैत्रेयनाथ, नागार्जुन, आर्यदेव आदि आचार्यों की परम्परा बौद्ध तान्त्रिक साधना से जुड़ी हुई है। श्रीधान्यकूटपर्वत, श्रीपर्वत, श्रीमलयपर्वत आदि स्थान इसी साधना से सम्बद्ध हैं। तन्त्र साधना का प्रमुख लक्ष्य है दैवी शक्तियों को वश में करके बुद्धत्व प्राप्ति करना । इसमें प्रायः किसी शक्ति विशेष की उपासना की जाती है और उसे अत्यन्त गोपनीय रखा जाता है। इससे अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । तान्त्रिक साधना के अनुसार दुष्कर और तीव्र तप की साधना करने वाला सिद्धि नहीं पाता । सिद्धि वही पाता है जो यथेष्टकामोपभोगों के साथ साधना भी करे। यही उसका योग है।" साधना की दृष्टि से तन्त्रों के चार भेद हैंक्रिया, चर्चा, योग और अनुत्तर योग। क्रियातन्त्र कर्म प्रधान साधना है। इसमें धारिणी तन्त्रों का समावेश हो जाता है। यहाँ बाह्य शारीरिक क्रियाओं का विशेष महत्त्व है। चर्चा तन्त्र समाधि से सम्बन्धित है। योग-तन्त्र में महामुद्रा, धर्ममुद्रा, समयमुद्रा, और कर्ममुद्रा योग अधिक प्रचलित हैं । अनुत्तर तन्त्र वज्रसत्व समाधि का दूसरा नाम है । साधना की दृष्टि से इसके दो भेद हैं-मातृतन्त्र और पितृतन्त्र । इन तन्त्रों की विधियों में प्रधान हैं-विशुद्धयोग, धर्मयोग, मन्त्रयोग और संस्थानयोग । इनको वज्रयोग भी कहा जाता है। तिम्बत और चीन में प्रचलित बौद्ध साधना बौद्ध तान्त्रिक साधना भारत के बाहर अधिक लोकप्रिय हुई । तिब्बत, चीन और जापान ऐसे देश हैं जिनमें महायानी साधना का विकास अधिक हुआ। तिब्बत में ईसा की सप्तम शताब्दी में सम्राट् स्रोङ्चन गम्पो के राज्यकाल में बौद्धधर्म का प्रवेश हुआ । स्रोचन स्वयं प्रथम धर्मज्ञ और तन्त्रज्ञ थे। उन्हीं के काल में 'मणिकाबुम' नामक तिब्बत साधना का ग्रन्थ लिखा गया। तिब्बती साधना की दो प्रणालियां हैं-पारमितानय और तान्त्रिकनय । पारमितानय करुणा और प्रज्ञा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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