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________________ +++ जैन और बौद्ध साधना-पद्धति भेदविज्ञान के बाद साधक को विपरसनायुक्त उदय-व्यचानुपश्यना, मङ्गानुपश्यना, भयतोपस्थान अदीनवानु पश्यना, निर्वेदानुपश्यना, मुञ्चितुकम्यता, प्रतिसंख्यानुपश्यना और संस्कारोपेक्षा ये आठ ज्ञान होते हैं। साथ ही प्रतीत्यसमुत्पाद का अनुलोमात्मक ज्ञान भी होता है । इसे प्रतिपदा ज्ञानदर्शनविशुद्धि कहते हैं। पश्चात् यह विशुद्धि उसे स्रोतापत्ति, सकदागामी, अनागामी और अर्हत् इन चार मार्गों की प्राप्ति की ओर अग्रसर करती है। इस बीच साधक चार स्मृतिप्रस्थान, चार सम्यक्प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पंचेन्द्रिय, पंचबल, सप्तबोध्यंग और आष्टाङ्गिक मार्ग इन संतीस पाक्षिक धर्मों की प्राप्ति करता है। तदनन्तर उसके संयोजन, क्लेश, मिध्यात्व, लोकधर्म, मात्सर्य, विपर्यास ग्रन्थ, अगति, आश्रव, नीवरण, परामर्श, उपादान, अनुशय, मल, अकुशल पथ आदि का प्रहाण होता है जिससे उसे सर्व क्लेशों का विध्वंस करने एवं आर्यफल का रसानुभव करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। अनित्य, दुःख और अनात्म का ज्ञान होने पर विपस्सना का प्रादुर्भाव होता है । यही विपस्सना प्रज्ञा का मार्ग है । इसी को लोकोत्तर समाधि कहा गया है । ४२५ दिव्यचक्षु, दिव्यस्रोत, चेतोपर्वज्ञान, पूर्वानुस्मृतिज्ञान, व्युत्युत्पादज्ञान और आश्रवक्षयज्ञान इन छह ज्ञानों को मोपमं में 'भिक्षा' कहा है। चेतोपर्वज्ञान जैन धर्म का मनपर्ववज्ञान है, पूर्वानुस्मृति वन्युत्युत्पादज्ञान जैनधर्म का अवविज्ञान है, एवं शेष ज्ञानों की तुलना केवलज्ञान से की जा सकती है। जैनधर्म की अपेक्षा बौद्धधर्म में प्रज्ञा का वर्णन अधिक सरल और स्पष्ट-सा लगता है । सम्यक्चारित्र और साधना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए सम्यक्चारित्र का परिपालन अपेक्षित है। सम्यक्चारित्र के बिना साधक का दर्शन और ज्ञान निरर्थक है ।' तीनों का समन्वित मार्ग ही मुक्ति का सही मार्ग है । समस्त पापक्रियाओं को छोड़कर, पर-पदार्थों में रागद्वेष दूर कर उदासीन और माध्यस्थ्य भाव की अङ्गीकृति सम्चारण है।" सम्यक्चारित्र दो प्रकार का है - एक सर्वदेश बिरति अथवा महाव्रत जिसे मुनि-वर्ग पालन करता है और दूसरा एकदेशविरति अथवा अणुव्रत जो श्रावक वर्ग ग्रहण करता है । अहिंसा आदि बारह व्रतों का पालन करता हुआ साधक आध्यात्मिक उत्कर्ष करता जाता है और तदर्थ वह दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिज्ञाओं का क्रमशः यथाशक्ति पालन करता है। इसी को 'प्रतिमा' कहा गया है । इसके बाद की अवस्था मुनिव्रत है जिसमें वह सत्ताइस मूलगुणों, पंच समितियों, षडावश्यकों आदि का पालन करता हुआ आत्मा का क्रमिक विकास करता है। इसी विकासात्मक सोपान को गुणस्थान कहा गया है जिनकी संख्या १४ है - मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसम्परायसंयत, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली । इन गुणस्थानों को पार करने पर योगी साधु मुक्त अथवा सिद्ध हो जाता है । बौद्ध योग-साधना बौद्ध योग साधना पद्धति में शमय और विपश्यना के माध्यम से निर्वाण की प्राप्ति मानी गई है। शमथ में साधक कर्मोपशमन के लिए चित्त को एकाग्र करता है । चित्त की एकाग्रता को प्राप्त करने के बाद उसे जब मार्ग-ज्ञान और फल ज्ञान होता है तब उसे विपश्यना कहते हैं। साधना की पूर्णता विपश्यना में ही होती है। विपश्यना केवलज्ञान या सर्वज्ञता का प्रतीक है और शमथभावना को सम्यक्चारित्र कहा जा सकता है। इसके लिए जिस प्रकार से जैन साधना में सम्यग्दृष्टि होना आवश्यक है उसी प्रकार बौद्ध साधना में भी सम्मादिट्टि का एक विशिष्ट स्थान है। यह स्थविरवादी साधना पद्धति है । Jain Education International १. शमथ भावना बौद्ध साधक प्रथमतः शमथ भावना का अभ्यास करता है और कल्याण मित्र की खोज करता है ।" बाद में शील विशुद्धि, इन्द्रिय संवरण, आजीव परिशुद्धि तथा प्रत्यय संनिश्रित शील का अभ्यास करते हुए लक्ष्य प्राप्ति के लिए दस प्रकार के विघ्न (पलिबोध ) दूर करे -- आवास, कुल, लाभ, गण, कर्म, मार्ग, ज्ञाति, अबाध ग्रन्थ और ऋद्धि | स्वभावादि की दृष्टि से यह प्रकार के व्यक्तित्व हुआ करते हैं रामचरित पचरित, मोहचरित, शुद्धापरित बुद्धिरित और विचारित अपने चरित के अनुसार साधक कर्मस्थानों (समाधि के आलम्बनों का चुनाव करता है। ये कर्मस्थान दो प्रकार के होते हैं—अभिप्रेत और परिहरणीय। उनका विनिश्चय दस प्रकार से होता है-संख्या, उप - For Private & Personal Use Only ० www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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