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________________ विश्व को जैनदर्शन की देन ३६५ विश्व को जैनदर्शन की देन Jain Education International - डा० द० ग० जोशी, एम० ए०, पी-एच० डी० विश्व के सभी दर्शनों का संलक्ष्य सामान्य रूप से मानव को उत्तम शिक्षा प्रदान कर उसके अंतिम कल्याण की ओर अग्रसर करना है । विज्ञों ने इस अंतिम कल्याण को पृथक्-पृथक् संज्ञा प्रदान की है। कितने ही उसे स्वर्ग, कितने ही उसे मोक्ष, कितने ही शाश्वत सुख प्राप्ति का स्थान, प्रभृति विविध नामों से अभिहित करते हैं। नाम पृथक्पृथक् होने पर भी सभी दर्शनों का संलक्ष्य मानव को जन्म-मरण, सुख-दुःख, रोग-व्याधि आदि के भय व चिन्ता से मुक्ति दिलाना है और नित्य आनन्दमय पद की उपलब्धि कराना है । प्रस्तुत पद को प्राप्त करने हेतु विभिन्न दर्शनों ने पृथक्-पृथक् मार्ग सूचित किये हैं। किसी ने ज्ञानयोग पर बल दिया है, तो किसी ने कर्मयोग पर और किसी ने भक्तियोग पर बल दिया है। न्याय, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, योग, बौद्ध दर्शन की तरह भारतीय परम्परा में जैनदर्शन का भी विशिष्ट स्थान है। आज के आधुनिक वैज्ञानिक युग में मानव को सभी प्रकार के शारीरिक सुख सहज रूप से प्राप्त हैं । वैज्ञानिक साधनों की प्रचुरता से मानव ने पाँच भूतों पर अधिकार-सा स्थापित कर लिया है। प्रत्येक भौतिक सुख उसे सहज ही उपलब्ध होने लगा है । तथापि जीवन में जो शांति अपेक्षित है वह उपलब्ध नहीं हो पा रही है। जंगदर्शन के अभिमतानुसार शांति का अक्षय कोष मानव के अन्तर में ही रहा हुआ है । उच्च विचार, सादा जीवन और जन-जन के कल्याण की पुनीत भावनाओं से ही मानव को शांति प्राप्त हो सकती है। यही कारण है पाश्चात्य मनीषीगण भी जैनदर्शन की ओर सहज रूप से आकर्षित हो रहे हैं । जैन दर्शन में अहिंसा सम्बन्धी जितना गहराई से विशद चिन्तन किया है और जो उसकी सूक्ष्म चर्चाएं की हैं वे विश्व के अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं हैं । वेद और उपनिषद्, भारतीय साहित्य की अनमोल उपलब्धि हैं तथापि वेद और उपनिषदों में जो अहिंसा का वर्णन है, वह जैन साहित्य की तरह गहराई से नहीं हो सका है। वेद और उपनिषदों में यज्ञ में होने वाली हिंसा तथा अन्यान्य भौतिक सुखों के लिए की गयी हिंसा त्याज्य नहीं मानी है। परन्तु जैनदर्शन में सभी प्रकार की हिंसा को त्याज्य माना है । यहाँ तक कि हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना भी पाप माना है । जैनदर्शन में हिंसा को तीन रूपों में विभक्त किया है। केवल काय के द्वारा ही हिंसा नहीं होती, किन्तु मन और वचन से भी हिंसा होती है । वचन के द्वारा किसी के मानस को व्यथित करना, मन के द्वारा किसी के सम्बन्ध जैनधर्म का यह मूल सिद्धान्त है— इस विराट् विश्व में जितने भी प्राणी हैं चाहे में अशुभ विचार करना भी हिंसा है। वे चर हैं, चाहे अचर हैं, चाहे सूक्ष्म हैं, चाहे स्थावर हैं, सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं । कोई भी प्राणी मरना पसन्द नहीं करता । अतः किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। शरीर से ही नहीं, वाणी और मन से भी उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। साधक के अन्तर्मानस में प्रेम भावना इतनी विकसित होनी चाहिए कि सभी के प्रति उसके मानस में प्रेम का पयोधि उछालें मारता रहे। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त स्वामी रामदास ने कहा कि वही महान् व्यक्ति है जो पहले करता है और फिर कहता है। जहाँ कहने और करने में एकरूपता नहीं होती वहाँ व्यक्ति महापुरुष की कोटि में नहीं आ सकता । प्रेमपूर्ण सद्व्यवहार कहने को नहीं, अपितु जीवन के व्यवहार में लाने की वस्तु है । श्रमण भगवान महवीर एक अत्युच्च कोटि के महापुरुष थे। उनके बताये हुए सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । पच्चीस सौ वर्ष का सुदीर्घकाल व्यतीत हो जाने पर भी आज भी उसमें वही चमक और दमक है। भगवान महावीर ने कहा- हिंसा से हिंसा बढ़ती है और अहिंसा से प्रेम की वृद्धि होती है। उन्होंने कहा ही नहीं किन्तु अपने जीवन में आचरण कर यह सिद्ध कर दिया कि वस्तुतः अहिंसा का कितना गौरवपूर्ण स्थान है । अहिंसा की निर्मल भावना विकसित होने पर जीवन में सहिष्णुता बढ़ती है जिससे साधक परीयों को ईसते और मुस्कराते हुए सहन कर सकता है । परीषहों को सहन करने से सहिष्णुता के साथ वह जितेन्द्रिय भी बन जाता है । पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषियों का ध्यान जैन दर्शन के प्रति आकर्षित हुआ है । मेरी दृष्टि से उसका मुख्य कारण अन्य कारणों के साथ जैनधर्म की सहिष्णुता है । सहिष्णुता से मन शान्त रहता है, कष्टों को सहन करने की For Private & Personal Use Only ० www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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